गुरुवार, 30 जून 2011

आगरा/१९७८-७९(भाग ४)

बउआ की फुफेरी बहन सीता मौसी और कृष्ण  कुमार मौसा जी का व्यवहार बहुत अच्छा था.हालांकि यह उनके फूफा जी की बड़ी बेटी थीं जबकि उनकी अपनी भुआ की बेटी रानी मौसी और गोविन्द बिहारी मौसा जी का व्यवहार स्वार्थी था.जब मैं मेरठ से खाली होकर आया था के.के.मौसा जी ने जाब दिलाने का प्रयास भी किया था.अतः गोविन्द मौसा जी के यह कहने पर कि,जीजाजी को दो हार्ट अटैक हो चुके हैं ,अशोक बी.काम.कर रहा है मौका लगे तो जाब दिलवा दो,झा साहब के कहने पर अशोक को अपने साथ अपरेंटिस रखवा दिया;वहां सीखा काम मौसा जी के निधन के बाद एल.आई.सी.  की नौकरी में अशोक के बहुत काम आया.

झा साहब चाहते थे होटल मुग़ल में एक 'क्रेडिट एंड थ्रिफ्ट सोसाईटी'की स्थापना हो जाए उसके लिए मुझ पर ही दबाव बनाया लिहाजा मुझे ही उसका प्रेसीडेंट बनना पड़ा.क्योंकि दौड़-भाग और अधिकारियों से काम मैं करा लूँगा ऐसा उन्हें पूर्ण विश्वास था जो गलत भी नहीं गया.वैसे आगे होटल के जेनरल मेनेजर को एक्स-आफिशियो अध्यक्ष बनाना तय हुआ था कारण यह था कि इनीशियली कं.रु.२००००/-इन्वेस्ट कर रही थी.यह रकम नान रिफंडेबिल  लोन के नाम पर दी गयी थी.को-आपरेटिव विभाग में भी रिश्वत का बोल-बाला था.लेकिन होटल स्टाफ की सोसाईटी होने के कारण नकद की डिमांड नहीं हुई.विभाग के अधिकारी होटल में आ-आ कर भोजन कर लेते थे.असिस्टेंट रजिस्ट्रार यूं.एस.सिसौदिया साहब ने एडीशनल ए.आर. अशोक माथुर साहब (पी.सी.एस.अधिकारी)को मुझसे मित्रता स्थापित करने हेतु निर्देशित किया था.को-आपरेटिव बैंक के डायरेक्टर शुक्ला जी जब सपरिवार आगरा आये तो सिसौदिया साहब ने उनके सत्कार में लगभग १२ लोगों का डिनर होटल में कराने की व्यवस्था चाही.मैनें झा साहब से जिक्र किया ,वह तो ऐसे मौकों की   फिराक में ही रहते थे कि ,कब,कैसे सरकारी अधिकारियों को ओब्लायीज किया जा सके.सिसौदिया साहब ने हेड क्लर्क को जीप मेरे घर भेज कर बुलवा लिया और अपनी पूरी टीम लेकर होटल चले.शुक्ल जी की आफिशियल  कार में सिसौदिया साहब ने अशोक माथुर साहब तथा मुझे भी बैठा लिया. शुक्ल जी के यह पूछने पर कि यह कौन साहब हैं ?सिसौदिया साहब ने कह दिया यह माथुर साहब के मित्र हैं और माथुर ही हैं इन्हीं की तरफ से डिनर है.'ए एंड जी'(एडमिनिस्ट्रेटिव एंड जेनरल एक्सपेंसेज)अकाउंट के मद में वह डिनर झा साहब के दस्तखतों से डाला गया.सरकारी अधिकारियों को इसी मद से ओब्लायीज किया जाता था.

सोसायटी रजिस्ट्रेशन के वक्त भी इन्स्पेक्टर कुलश्रेष्ठ साहब इसी मद के तहत भोजन कर गए थे.आगामी वर्ष जब चुनाव हुए तो तय प्रोग्राम के मुताबिक़ जेनेरल मेनेजर पेंटल साहब को प्रेसीडेंट हेतु नामित किया गया और उनके व्यक्तिगत अनुरोध पर मुझे उनके साथ वाईस प्रेसीडेंट बनना पड़ा,क्योंकि पेंटल साहब का काम तो मुझे ही करना था,वह औपचारिक हस्ताक्षर करते थे.डिपार्टमेंट की तरफ से जो इंजीनियर चुनाव पर्यवेक्षक बन कर आये थे वह मेरे साथ १९६२-६४ में शाहजहांपुर में कक्षा ६ एवं ७ में पढ़ चुके थे.

दोहरी सदस्यता के नाम पर मोरार जी सरकार टूट गयी थी और चौ.चरण सिंह इंदिराजी के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए थे तो होटल मौर्या ,दिल्ली में युनियन प्रेसीडेंट उनके किसी भांजे को झा साहब ने बनवा दिया जो वहां ट्रांसफर होकर जा चुके थे.मुग़ल होटल में हेमंत कुमार साहब पर्सोनल मेनेजर बन कर आये थे उनका लक्ष्य यहाँ दो युनियन बनवाना था. वह मुझ से सहयोग चाहते थे.मैंने सेक्रेटरी पद छोड़ दिया था और दुबारा वह भी अपने सहयोग से गठित युनियन को तोड़ कर कुछ नहीं कर सकता था.अतः हेमंत कुमार साहब मुझसे खिंचे-खिंचे रहते थे.उन्होंने झा साहब की मदद से मौर्या की युनियन के प्रेसीडेंट को आगरा बुलवाया और रविवार छुट्टी का दिन होने के बावजूद मुझे भी घर से युनियन पदाधिकारियों के माध्यम से बुलवा लिया. मैंने चौ.साहब के उन भांजे साहब को समझाया कि वह दो युनियन के चक्कर में न पड़ें और अपने यहाँ दिल्ली में भी ऐसा न होने दें -बात उनकी समझ में आ गयी और हेमंत कुमार जी मुंह की खा गए.

सेक्रेटरी पद क्यों छोड़ा?

झा साहब ने अपनी रण-नीति में विफल रहने पर मुझे डबल प्रमोशन दिला दिया था और मेरे अधीन एक अपरेंटिस मेरे द्वारा लाया ही रखवा दिया था ,इसके पीछे भी उनकी गहरी चाल थी.ऐसा करके उन्होंने मेरे विरुद्ध मेनेजमेंट से मिल जाने का दुष्प्रचार करवाया तथा अध्यक्ष को कैप्चर कर लिया.कार्यकारिणी में अध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास -प्रस्ताव पास करा कर मैंने उन्हें पदच्युत करवा दिया और उपाध्यक्ष को कार्यवाहक अध्यक्ष बनवा दिया.इत्तिफाक से उपाध्यक्ष भी अध्यक्ष वाली जाति के ही थे.उन्हें भी झा साहब ने तोड़ लिया तब दूसरा कोई उपाय न देख कर मैंने कार्यकारिणी से मध्यावधी चुनाव घोषित करा दिए.उधर मोरार जी साहब का प्रधानमंत्री पद भी चला गया था.

नए चुनावों में मैंने चुनाव न लड़ने का एलान कर दिया.प्रेसिडेंट पद के लिए दो नाम थे और सेक्रेटरी पद के लिए एक भी नाम नहीं आया और स्टाफ तथा मेनेजमेंट दोनों का दबाव मुझ पर ही पुनः सेक्रेटरी बन जाने का रहा .था.मैं थूक कर चाटने वालों में नहीं हूँ.अतः मैंने अध्यक्ष पद के एक प्रत्याशी जो बंगाली थे को सेक्रेटरी पद पर जिताने का पूर्ण आश्वासन देकर अध्यक्ष पद के बिहारी प्रत्याशी के पक्ष में हट जाने को राजी किया.अध्यक्ष पद निर्विरोध हो गया.समय के भीतर सेक्रेटरी पद के लिए जब बंगाली साहब का आवेदन जमा हो गया तब आनन्-फानन में हमारे अकौन्ट्स विभाग के एक भटनागर बंधू को उनके विरुद्ध झा साहब की योजना के अंतर्गत खड़ा कर दिया गया.वायदे के अनुसार मुझे बंगाली महोदय का समर्थन करना और जिताना था,लेकिन विभागीय साथी भटनागर का पक्ष लेने को दबाव बना रहे थे.मेरे लिए दिए गए वचन का महत्त्व भी था और प्रश्न यह भी था जब मैंने भटनागर को अपना उत्तराधिकारी बन जाने को कहा था तो उन्होंने इनकार कर दिया था अब झा साहब के इशारे पर मैदान में कूद गए थे.यह अनैतिक  कदम  थाजिसका समर्थन करने का कोई सवाल ही नहीं था.भटनागर और सम्पूर्ण आफिस स्टाफ ने एडी-चोटी का दम लगा लिया और जब बुरी तरह हारने का अनुमान लग गया तो भटनागर साहब मेरे पास आकर बोले कि,हारना तो तय है लेकिन बुरी तरह फजीहत न हो कायस्थ होने के नाते मुझे इसलिए ५० वोट दिलवा दीजिये.मैंने उन्हें सिर्फ ५० वोट दिलवाने का वायदा कर दिया और ५०  लोगों को कह दिया.हालांकि इस खबर से बंगाली महोदय घबडा कर मेरे पास आये और अपनी आशंका व्यक्त की कि आप कहीं भटनागर को तो नहीं जिता रहे हैं.मैंने स्पष्ट कर दिया तुम बंगाली कायस्थ हो और वह यूं.पी.के कायस्थ पर हैं दोनों एक ही बरादरी के  मैं अपने वायदे पर कायम हूँ और तुम ही सेक्रेटरी बनोगे.हुआ भी यही केवल भटनागर की शर्मनाक हार नहीं हुई.

मेनेजमेंट कभी सरलता से हार नहीं माना करता है.हेमंत कुमार जी ने क्या चाल चली अगली बार ............

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