शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

आगरा/1986-87(भाग-2)

अब एक तरफ तो मे मजदूर आंदोलन मे भाकपा के माध्यम से सक्रिय था दूसरी तरफ भाजपा के रुझान वाले व्यापारियों की नौकरी कर रहा था। शुरू-शुरू मे पार्टी का कार्य गोपनीय ढंग से किया,लेकिन  एक बार एक प्रदर्शन मे भाग लेते हुये सेठ जी के चचेरे भाई (जिनकी हरिद्वार मे गंगा मे डूब कर मृत्यु हुयी जब मैंने उन्हें पानी से खतरा बताया था तो वह खूब हँसे थे) ने देख कर सेठ जी को सूचित किया और वितरित पेंफ्लेट उनको दे दिया तो सेठ जी ने पूछा कि माथुर साहब यह क्या? उन्हें समझा दिया यह हम कर्मचारियों के हित की लड़ाई है मैंने मुगल के विरुद्ध केस इन्हीं के माध्यम से किया है तो वह संतुष्ट हो गए। जब व्यापारियों और उनके वकील साहब को यह संतुष्टि रही कि मेरे कम्युनिस्ट पार्टी मे भागीदारी से उनका कार्य प्राभावित नहीं होता है तो खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन आदि मे भाग लेने हेतु कुछ घंटों अथवा पूरे दिन का भी समय वे दे देते थे जिसका पूरा वेतन मुझे मिलता था।

कभी-कभी तो मौज मे होने पर सेठ जी मजदूरों की समस्या पर भी चर्चा करने लगे थे। उन्होने अपने सामने की दूसरी दुकान पर भी मुझे पार्ट-टाईम दिला दिया था क्योंकि उनके साढू को भी फुल-टाईम अकाउंटेंट की जरूरत थी अतः वहाँ छोडना पड़ा था। एक बार सेठ जी ने स्वीकार किया कि,हिंदुस्तान मे 'डिस्पेरिटी तो है-एक तरफ बोरे मे भी धन रखने की जगह नहीं है दूसरी तरफ मजदूर भूख से बिलबिला रहे हैं। 'उनके अनुसार यह व्यवस्था की समस्या है वे लोग व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं कर सकते,सिवाए इसके कि मेरे समान संघर्षरत ईमानदार लोगों को सहयोग जो हो सकता है -प्रदान कर दे।

हमारे जिला मंत्री मिश्रा जी का कहना था आप भाग्यशाली हो जो आप को 'कम्यूनिस्ट' पहचान के बावजूद भाजपा के व्यापारी जाब मे रखे हुये हैं,अन्यथा संघ/भाजपा के व्यापारी ट्रेड यूनियन तक के लोगों को बर्दाश्त नहीं करते । कोशाध्यक्ष चौहान साहब का दृष्टिकोण था कि चूंकि मैंने उनके अकाउंट्स पर होल्ड कर लिया है इसलिए मुझे रखना उनकी मजबूरी है जिसे वह अपनी उदारता के रूप मे पेश कर रहे हैं। लेकिन वे संतुष्ट थे की मेरे रोजगार पर पार्टी मे भागीदारी से खतरा नहीं है।

हमारे पास समयाभाव भी था और धनाभाव भी था अतः हम लोग मेल-जोल पुनः होने के बावजूद टूंडला कम ही जा पाते थे।रेलवे बाबू शरद मोहन की पत्नी ही कभी अपनी जेठानी,कभी दूसरी नन्द को लेकर आती रहती थीं और दिन मे दुकानों ,फिर पार्टी आफिस मे होने के कारण मेरी गैर मौजूदगी मे ही उन लोगों का आना-जाना होता था। शरद मोहन को रोज शहर आने-जाने के बावजूद अपनी बहन या भांजे से मिलने की कोई जरूरत नहीं थी। पार्टी आफिस राजा-की-मंडी मे होने के कारण यदि शालिनी के बहौत आग्रह पर मे उनके आफिस मे गया तो वह सकपका जाते थे और ढंग से कोई बात-चीत न करते थे। उनके घर टूंडला जाने पर भी वह घर पर नहीं होते थे और यदि कभी घर पर हुये भी तो सोने का स्वांग करते थे,उनकी माता का कहना होता रोज आफिस मे थक जाता है आज रेस्ट मे रेस्ट कर रहा है। एम ए पास इन्क्वायरी के बाबू को मुझ से बात करने मे घबराहट होती थी। क्योंकि वह अश्लील मज़ाक पसंद व्यक्ति थे और मुझे तो मज़ाक ही पसंद नहीं था/न ही है।

डा राम गोपाल सिंह चौहान ने रिटायरमेंट के बाद कालेज का बंगला -6,हंटले हाउस  अपनी पुत्री (जो आगरा कालेज मे हिन्दी विभाग मे पढ़ाती थीं)के नाम करवा लिया था और उन्हीं के लान मे पार्टी की बड़ी मीटिंग्स होती थीं। वह A I P S O मे भी सक्रिय थे और उसमे भी मुझे बुलाते थे। इस 'विश्व शांति और एकजुटता संगठन' मे कम्यूनिस्टों के अतिरिक्त कांग्रेस,जनता पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के भी सदस्य थे। आगरा मे इसका नेतृत्व का महादेव नारायण टंडन (संस्थापक जिला मंत्री,आगरा-भाकपा)करते थे जो कम्यूनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध के समय A I C C मे सक्रिय थे और गोपनीय ढंग से पार्टी चला चुके थे। 1987 मे कानपुर एपसो का एक सम्मेलन था जिसमे भाग लेने को टंडन जी ने मुझ से कहा परंतु मैंने आर्थिक आधार पर असमर्थता व्यक्त कर दी। उन्होने कहा हम तुम्हें भेजेंगे तुम टिकट की चिंता न करो। एक वृद्ध सज्जन जो एन वक्त पर नहीं गए उनके टिकट पर मुझे भिजवा दिया और लौटने के टिकट का धन पार्टी फंड से मिश्रा जी ने दे दिया।

राजा-की-मंडी रेलवे स्टेशन से आगरा से जाने वाले लोगों का जत्था 'गंगा-जमुना एक्स्प्रेस' से रात्रि मे चला और अगले दिन प्रातः कानपुर पहुंचा । विवरण अगली बार....... 

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