शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

आगरा/1984-85(भाग-6 )

हालांकि 21 फरवरी 1985 को टर्मिनेशन लेटर मिलने और 01 अप्रैल 1985 को हींग की मंडी की जूते की दुकान मे नौकरी करने के मध्य खाली रहा। कभी किसी और कभी किसी काम से इधर-उधर जाना बढ़ गया क्योंकि समय पर्याप्त था। जब कभी टूंडला जाना हुआ तो शालिनी का आग्रह रहता था कि उनके घर भी मिल कर आऊँ और अक्सर वहाँ भी  हो आता था । घर पर उनकी माँ और छोटी भाभी ही अक्सर मिल  पाती थीं। उनके भाई तो राजा-की -मंडी स्टेशन पर रेलवे इंक्वायरी मे  रोज ड्यूटी देने आते थे परंतु अपनी छोटी बहन से मिलने आना उनकी कर्टसी मे नहीं था। इसलिए मै उनके घर टूंडला जाने का इच्छुक नहीं होता था लेकिन जब यशवंत के जन्म के बाद दोबारा आना-जाना शुरू हो गया था तो चला ही जाता था।

पहले 1982 मे जब यशवंत से बड़ा वाला लड़का वहाँ टूंडला मे हुआ और 12 घंटे बाद नहीं रहा तो वहाँ से आवा-गमन बंद कर दिया था।किन्तु जब शालिनी वहाँ थीं तो महीना-पंद्रह दिन पीछे जाता रहा था। उस समय भी शरद मोहन का व्यवहार अटपटा लगता था। कभी वह अपने भिलाई वाले ताऊ जी से मज़ाक मे कहते थे आप बैंक क्यों जा रहे हैं मम्मी के स्टेट बैंक (आशय ब्लाउज मे रखे पर्स से था) से रु ले लिया करें। कभी वह अपनी मौसेरी बहन चंचला (मिक्की) जो दो बच्चों की माँ थी को गोद मे उठा कर सीने से चिपटा कर डांस करने लगते थे और मिक्की सिर्फ मौसी-मौसी कहती रहती थीं और उनकी मौसी अर्थात शरद मोहन की माँ केवल हँसती रहती थीं।

अब 1985 मे उनकी श्रीमती जी -संगीता का व्यवहार भी अटपटा ही दीखा। वह अक्सर लेटी ही रहती थीं किन्तु उनकी भाव-भंगिमा ठीक नहीं लगती थी। शालिनी ने बताया था कि शुरू-शुरू मे जब वह आयीं थीं तो श्वसुर साहब के टूर से लौटने पर उनके सीने से चिपट जाती थीं जो उनकी सास को भी ठीक नहीं लगा,उन्होने खुद ही अपनी सास को बताया था कि जब वह अपने कालेज यूनियन की अलवर मे प्रेसीडेंट थीं तो सहपाठी लोग उनसे चिपटते रहे थे उसी आदत के कारण वह अपने श्वसुर से भी चिपट जाती थीं, अलवर की अपनी कालोनी मे वह 'काली पप्पी' के नाम से मशहूर थीं । हालांकि अब शालिनी जीवित नहीं हैं तो वे लोग अपनी बात से पलट भी सकते हैं। व्यक्ति हो या न हो बात उसकी याद मे  रह जाती है।

मई के आखिर मे उनकी पुत्री का जन्म हुआ तो कुछ समय के लिए शालिनी को बुलवा लिया था ,इस प्रकार यशवंत तब ही पहली बार वहाँ पहुंचा था।उस समय उसका वहाँ मन नहीं लगा था।

बिजली दुकान का पार्ट टाईम जाब ज्यादा नहीं चल सका। वकील साहब ने हमारी कालोनी मे ही स्थित एक जूता फेकटरी मे दूसरा पार्ट टाईम जाब दिला दिया। ये लोग मुस्लिम होने के बावजूद सौम्य व्यवहार के थे। लेकिन कुछ समय बाद इनहोने वहाँ से काम समेट लिया और कलकत्ता चले गए। फिर  सेठ जी ने अपने साढ़ू साहब की जूता फेकटरी मे पार्ट टाईम जाब दिला दिया। वह भी पास की कालोनी मे ही था। ........



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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके साथ संस्मरण की गलियारों से गुज़रना एक अद्भुत अनुभव होता है।

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  2. गुरूजी प्रणाम - आप से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ! समय के साथ चले है !

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