मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

यादों के झरोखे से-61 वर्ष(भाग-1) ---विजय राजबली माथुर

 अरे भई लीडर  नहीं,मैं तो एक       प्लीडर हूँ।

प्राफेसर     नहीं  ----प्रूफ      रीडर           हूँ। ।

आग फूंस की मत मुझको समझो,एक बबूला हूँ।

मत समझो मुझको छैनी,मैं तो एक वसूला हूँ। ।

मिट्टी का माधव मैं नहीं,कह लो शेर-ए-मिट्टी हूँ।

मत समझना मुझको अणु-विभु से भारी तुम,परमाणु की एक गिट्टी हूँ। ।

(20-11-1976 को 'विद्रोही स्व-स्वर मे'शीर्षक से लिपिबद्ध यह तुकबंदी ही मेरा परिचय  है। )

'मनुष्य अपने ग्रह-नक्षत्रों द्वारा नियंत्रित पर्यावरण की उपज है'। इसी लिए कभी अनपेक्षित सफलता मिल जाती है तो कभी सतत संघर्षों के बाद भी वांछित सफलता से वंचित रहना पड़ता है। इस सब मे 'सद -कर्म','दुष्कर्म' और सर्वाधिक प्रभाव 'अकर्म' का रहता है। जब तक मनुष्य का मस्तिष्क समझ-बूझ लायक सक्रिय नहीं हो जाता तब तक बाल्यावस्था मे वह पूर्व जन्म के संचित संस्कारों द्वारा संचालित रहता है। जहां तक याददाश्त का सवाल है मुझे भलीभाँति आज भी याद है कि,इसी लखनऊ मे हुसेन गंज नाले के पास 'फख़रुद्दीन मंजिल' मे जब हम लोग  रहते थे तब सड़क पार (विधानसभा मार्ग) सामने विजय मेडिकल हाल के निकट 'राष्ट्रीय पाठशाला' मे पढ़ने जाते थे लेकिन किस कक्षा मे यह याद नही है। उससे पूर्व जब बाबूजी नानाजी के साथ मामाजी (डॉ कृपा शंकर माथुर,पूर्व विभागाध्यक्ष-एङ्ग्थ्रोपालोजी ,लखनऊ विश्वविद्यालय)के आस्ट्रेलिया जाने पर उनके आग्रह पर न्यू हैदराबाद वाले मकान मे कुछ समय रहे थे तब वहीं किसी विद्यालय मे जो घर के बिलकुल नजदीक था मे किसी कक्षा मे पढ़ने भेजा था परंतु वहाँ बच्चे परेशान करते थे और किताबें फाड़ देते थे अतः स्कूल से हटा लिया गया था। राष्ट्रीय पाठशाला के बाद हेवट रोड स्थित बेंगाली ब्वायज स्कूल मे 'टेस्ट' के आधार पर मेरा दाखिला कक्षा तीन मे और छोटे भाई का कक्षा दो मे बाबूजी ने कराने का फैसला किया था। उसी दिन न्यू हैदराबाद से माईंजी आई और बोलीं कि इतनी दूर न भेजें बल्कि 'मुरली नगर' के 'डी पी निगम गर्ल्स जूनियर हाई स्कूल' मे भेजें वहाँ की प्रधानाध्यापिका उनकी सहेली थीं। वहाँ मुझे कक्षा दो मे तथा अजय को कक्षा एक मे लिया गया।

मसालों आदि की पुड़िया/लिफाफे आदि जिनमे कोई कविता मिल जाती थी मैं बउआ से लेकर सम्हाल कर रख लेता था। शायद इसी लिए कक्षा तीन से  मेरे लिए बाबूजी प्रत्येक इतवार को 'स्वतंत्र भारत' अखबार खरीदने लगे थे। फुफेरे भाइयों को यह बहुत नागवार गुजरा था। वे भुआ-फूफाजी से शिकायत करते थे कि मामाँ जी विजय के लिए अखबार खरीदते हैं वह क्या पढ़ता होगा?निश्चय ही उस वक्त मैं सिर्फ बाल परिशिष्ठ की कविता/कहानियाँ ही पढ़ता रहा हूंगा। जब तक अखबार का कागज गल न गया तब तक मेरे पास सब सुरक्षित थे।  

1857की 'क्रान्ति' के  शताब्दी वर्ष 1957 मे किसी मेगज़ीन मे उस क्रांति की याद दाश्त मे  'अजीमुल्ला'साहब की कोई कविता छ्पी थी जो किसी पुड़िया के रूप मे मुझे मिली थी और  बहुत दिनों तक मैं सुरक्षित रखे था अब भी कुछ पंक्तियाँ जो इस प्रकार याद हैं---


हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा |
पाक वतन है  कौम का, जन्नत से भी प्यारा ||
ये है हमारी मिल्कियत, हिंदुस्तान हमारा |
इसकी रूहानियत से, रोशन है जग सारा ||
कितनी कदीम, कितनी नईम, सब दुनिया से न्यारा |
करती है जरखेज जिसे, गंगो-जमुन की धारा ||
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा |
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा ||
इसकी खाने उगल रहीं, सोना, हीरा, पारा |
इसकी शानो  शौकत का दुनिया में जयकारा ||
आया फिरंगी दूर से, ऐसा मंतर मारा |

लूटा दोनों हाथों से, प्यारा वतन हमारा ||
आज शहीदों ने है तुमको, अहले वतन ललकारा |
तोड़ो, गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा ||
हिन्दू मुसलमाँ सिख हमारा, भाई भाई प्यारा |
यह है आज़ादी का झंडा, इसे सलाम हमारा ||


कक्षा चार पास करने के बाद 1961 मे बाबूजी का तबादला बरेली होने के कारण वहाँ 'रूक्स प्राईमरी स्कूल'से पाँचवी करके छ्ठे क्लास मे दाखिला 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल' (जो अब टैगोर इंटर कालेज हो गया है)मे लिया परंतु 1962 मे चीनी आक्रमण के दौरान बाबूजी का पुनः ट्रांसफर सिलीगुड़ी (नान फेमिली स्टेशन)होने से हम लोगों को नानाजी के पास शाहजहाँपुर रहना पड़ा और छ्ठे क्लास का शेष भाग तलुआ,बहादुरगंज स्थित 'विश्वनाथ जूनियर हाई स्कूल' से करना पड़ा। यहीं सातवीं कक्षा मे ज़िला वाद-विवाद प्रतियोगिता मे 'प्रथम पुरस्कार' के रूप मे शील्ड के साथ 'कामायनी'पुस्तक प्राप्त हुई।
  बबूए मामाजी आदि (बउआ के चचेरे भाई-बहन)का कहना था कि बी ए स्तर की पुस्तक कक्षा सात मे विजय क्या करेगा?उन सबने पहले पुस्तक पढ़ी तब बाद मे मैं पढ़ पाया जो आज भी मेरे पास मौजूद है। सातवीं पास करने के बाद बाबूजी के पास सिलीगुड़ी चले गए जहां आश्रम पाड़ा स्थित 'कृष्ण माया मेमोरियल हाई स्कूल'से आठवीं  कक्षा से 10 वीं तक अध्यन किया और वहीं से हाई स्कूल पास किया। 9वीं कक्षा मे पढ़ने के दौरान 1965 मे भारत-पाक संघर्ष छिड़ गया था तब एक दिन कक्षा मे बैठे-बैठे ही एक तुकबंदी लिख डाली थी जिसे सहपाठी ने अध्यापकों को भी दिखा दिया था-
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड - पिचड अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यु-थांद चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
चूंकि बाबूजी का ट्रांसफर यू पी की तरफ होना सुनिश्चित हो गया था परंतु स्टेशन घोषित नहीं हुआ था अतः हम लोगों को पुनः शाहजहाँपुर मे नानाजी के पास आना पड़ा। 'गांधी फैजाम कालेज' से इंटर प्रथम वर्ष किया और द्वितीय वर्ष 'श्री सनातन धर्म इंटर कालेज',लाल कुर्ती,मेरठ कैंट से। फिर स्नातक 'मेरठ कालेज,मेरठ' से किया। यहाँ विभिन्न भाषण गोष्ठियों मे भाग लिया तथा एक जो प्रतियोगितात्मक थी उसमे द्वितीय पुरस्कार के रूप मे चार पुस्तकें  प्राप्त कीं जिनमे हिन्दी मे ये थीं-




आर आर दिवाकर साहब एवं के पी एस मेनन साहब लिखित दोनों अङ्ग्रेज़ी पुस्तकों सहित सभी आज भी मेरे पास हैं।

१९६९ -७० क़े दौरान शाहजहाँपुर मे लिखी अपनी यह लघु तुक-बन्दी जिसे २६ .१० १९७१ को हिन्दी टाईप सीखते समय मेरठ मे टाईप किया था ,प्रस्तुत है-


यह महाभारत क्यों होता?
जो ये भीष्म प्रतिज्ञा न करते देवव्रत ,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 होते न जन्मांध धृतराष्ट्र ,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 इन्द्रप्रस्थ क़े राजभवन से होता न तिरस्कार कुरुराज का,
तो यह महाभारत क्यों होता?
 ध्रूत-भवन में होता न चीर -हरण द्रौपदी का,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 होता न यदि यह महाभारत,
 तो यह भारत,गारत क्यों होता?
 होता न यदि यह महाभारत,
 तो यह गीता का उपदेश क्यों होता?
 होता न यदि यह गीता का उपदेश,
 तो इन वीरों का क्या होता?
मिलती न यदि वीर गति इन वीरों को,
तो इस संसार में हमें गर्व क्यों होता?
*               *              *


 बी ए करने के बाद 13 माह खाली बैठ कर नौकरी पाने के प्रयास करते रहे और नानाजी के फुफेरे भाई स्व महेश चंद्र माथुर,इंस्पेक्टर आफ फेकटरीज़,इंचार्ज-मेरठ रीज़न,मेरठ की कृपा से 'सारू स्मेल्टिंग'  मेरठ मे क्वार्टर के सामने ही ( रेलवे लाईन पार करते ही)अकाउंट्स विभाग मे नौकरी मिल गई। सवा तीन साल कार्य करने के  उपरांत एमेर्जेंसी के दौरान सर्विस समाप्त हो गई और 90 दिन खाली रहने के बाद आगरा मे होटल 'मोगुल ओबेराय' (जो बाद मे मुगल शेरेटन हो गया)मे अकाउंट्स विभाग मे जाब मिल गया। यहाँ से 1985  मे सुपर वाईजर अकाउंट्स के पद से ईमानदारी के चलते  बर्खास्त होने के बाद हींग की मण्डी,आगरा मे विभिन्न दुकानों मे अकाउंट्स जाब पार्ट-टाईम के रूप मे करते हुये होटल मुगल के विरुद्ध केस लगा दिया जिसके सिलसिले मे AITUC से संपर्क के कारण अक्तूबर 1986 मे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मे शामिल हो गया। बाद मे आगरा भाकपा का ज़िला कोषाध्यक्ष भी रहा। लखनऊ मे पूर्व राज्य सचिव  बाबूजी के सहपाठी और रूम मेट रहे कामरेड भीखा लाल जी से जब भेंट हुई तब उन्होने काफी खुशी ज़ाहिर की थी कि मैं (उनके सहपाठी का पुत्र)उनकी पार्टी मे सक्रिय हूँ।

1994 से 2006 तक भाकपा मे सक्रिय न रह कर 10वर्ष 'सपा' मे रहा था और  बाद मे निष्क्रिय था तब  भाकपा,आगरा के जिलामंत्री के कहने पर पुनः वापिस भाकपा मे शामिल हो गया उन्होने 2008 मे मुझे अपने साथ सहायक सचिव के रूप मे कार्यकारिणी मे भी शामिल किया था किन्तु मुझे लखनऊ आना था अतः इस पद पर कायम न रहा। 2009 मे लखनऊ आने पर मेरी सदस्यता यहाँ स्थानांतरित हो गई और अब यहाँ ज़िला काउंसिल सदस्य के रूप मे सक्रिय हूँ।कम्युनिस्ट पार्टी और आर्यसमाज मे रह कर काफी ज्ञानार्जन प्राप्त करने के मौके मिले और मैंने उनका सदुपयोग भी किया है। यों तो 1973 से ही मैं किसी न किसी समाचार पत्र मे लिखता रहा हूँ और एक साप्ताहिक तथा एक त्रैमासिक मे उप-सम्पादक के रूप मे भी सम्बद्ध रहा हूँ। परंतु जून 2010 से अपने विभिन्न ब्लाग्स के माध्यम से लेखन मे दोनों महान संगठनों से प्राप्त ज्ञान को सार्वजनिक करता आ रहा हूँ। स्व्भाविक रूप से प्रतिगामी सोच और विचारों वाले लोगों को चाहे वे रिश्तेदार हों या अन्य -जनहित के ये विचार रास नहीं आते हैं। ऐसे लोगों ने निर्ममता पूर्वक मुझे तथा मेरे परिवारीजनों को पीड़ित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा है। ऐसे लोगों का केंद्र 'पूना' बना हुआ है। भ्रष्ट-धृष्ट-निकृष्ट ब्लागर जो वर्तमान मे पूना मे प्रवास कर रहा है ऐसे लोगों का नेतृत्व व संरक्षण करता है। उस 'ठग' व 'धूर्त' ब्लागर के लगगे-बझझे ब्लागर्स मेरे ज्योतिषीय ज्ञान पर तीव्रता से प्रहार करते हैं क्योंकि मेरे द्वारा व्यक्त दृष्टिकोण को अपनाने से 'ढ़ोंगी-पाखंडी-आडम्बरधारियो'का शोषण-उत्पीड़न का खेल फीका पड़ जाता है। कारपोरेट/पूंजीवाद के दलाल ये ब्लागर्स जन-जागरण के घोर विरोधी हैं और पाखंड की वकालत करते हैं  अतः हम लोगों को परेशान करते रहने मे आनंद का अनुभव करते हैं।

क्रमशः..............

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