शनिवार, 19 मार्च 2011

क्रान्ति नगर मेरठ में सात वर्ष (१८)

मेरठ की सर्विस के दौरान ही अजय को देखने आगरा गया था तो बाबूजी अपने साथ दिल्ली मिथलेश जीजी की शादी में ले गए थे.वह बाद में आगरा लौटे और मैं मेरठ चला आया था.हालांकि मौसी के बाद यह शादी हुयी थी,परन्तु उनकी दो देवरानियों ने मौसी की ही भांति बर्ताव किया था;एक तो बउआ और मौसी की मौसेरी बहन थीं ही.माईं जी से मिलने वीरेंद्र चाचा(बाबूजी के चचेरे भाई जो माईं  जीके मौसेरे भाई भी हैं)आये थे ;मैंने उन्हें पहचान कर बाबूजी को बताया था.अगले दिन वह माडल टाउन अपने घर सुबह के नाश्ते पर बुलाकर ले गए.उस समय वह सेन्ट्रल सेक्रेटेरियेट में प्लास्टिक एंड केमिकल्स सेल में उच्चाधिकारी थे.

लाल भाई सा :के चचेरे भाई श्री बी.बी.माथुर ने  जो सेन्ट्रल बैंक में थे अपने सहपाठी डॉ जायसवाल का हवाला दिया था जिनका क्लीनिक सरू स्मेल्टिंग की बिल्डिंग में किराए पर था और उनका कं.से विवाद चल रहा था.डॉ.जायसवाल ने मुझे बताया था उस कं.के संस्थापक सेठ शीतल प्रसाद जैन पहले ठठेरा थे और सर पर रख कर बर्तन बेचा करते थे.डॉ. सा :के पिताजी सेठ जी को तब ब्याज पर रु. उधार दिया करते थे जिनके न रहने पर उन्होंने उनका सारा धन हड़प लिया और सेठ बन गए.डॉ. सा :को एक कमरा क्लीनिक चलने को तब दिया था और उनकी प्रेक्टिस जम जाने के बाद सेठ जी के बेटे उन्हें बेदखल करना चाहते थे.सेठ जी के सात बेटे थे जिनमें आपस में टकराव रहता था.मेरे वहां  से चले आने के बाद सुना था वह कं.उन भाईयों  में अलग -अलग टुकड़ों में बटी . 
सेल्स विभाग में श्री रमेश गौतम मेरे ज्वाईन करने के वक्त सेल्स ट्रेनी थे.यह मेरे साथ मेरठ कालेज में इकोनामिक्स की क क्षा  में साथ थे.मेरठ कालेज के पूर्व प्राचार्य के यह पुत्र थे और आर्मी से शार्ट सर्विस कमीशन  पूरा  करके कैप्टेन की पोस्ट से आये थे.मेरे कं. छोड़ते वक्त यह सेल्स एक्जीक्यूटिव हो गए थे ;मार्केटिंग डायरेक्टर श्री नरेश चन्द्र जैन के साथ यह आर्मी में जाने से पूर्व पढ़े थे.बाद में इन्हें दिल्ली दफ्तर का हेड बना दिया गया था.नरेश जी के एक और साथी डा.शेखर थे जिन्होंने मेरी हाथ की दसों उँगलियाँ पक जाने पर बिना फीस लिए दवाएं प्रेस्क्रायीब की थीं.फायदा हो जाने  के बाद दस दिन एक्स्ट्रा दवा खाने का उन्होंने परामर्श दिया था.

१९७१ की बाढ में शराब का घपला करके मोहन मीकिंस ,लखनऊ से बर्खास्त हुए श्री के.पी.गर्ग ,सी.ए.कं. के इंटरनल आडीटर बन गए थे वह कभी इसी कं. में लेखाकार रहे थे.उन्होंने अपने साले श्री ब्रिज मोहन साहनी  को कास्ट लेखाधिकारी बनवा दिया जिन्होंने अपने और रिश्तेदारों को भरने हेतु पहले मुझे और बाद में गौड़ सा :को हटवाया.सस्पेंशन पीरियड में ओमेश कालिया जी के मित्र के साथ जब दिल्ली जाते थे तो वीरेंद्र चाचा  से भी दफ्तर में मिलते थे.उन्होंने दूसरी जगह नौकरी दिलाने का वायदा किया भी था ,लेकिन २६ जून को इमरजेंसी लग गयी.उस दिन भी दिल्ली में थे ,सड़कों पर सन्नाटा था.दोपहर में ही वापिस मेरठ लौट आये जबकि हमेशा प्रातः उस पेसेंजर से जाते थे जो सिटी स्टेशन से केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए चलती थीऔर लौटती उसी गाड़ी से लौटते थे.कैंट स्टेशन से सिटी स्टेशन तक रेलवे पटरी के सहारे -सहारे पैदल ही जाते थे.दोनों जनों को पैसों की दिक्कत थी लिहाजा कोई वाहन नहीं पकड़ते थे.चूंकि पेसेंजर में लोग एम्.एस.टी.वाले होते थे कोई चेकिंग नहीं होती थी. सब कर्मचारी मिनटों ब्रिज उतारते थे हम लोग भी वहीं उतर जाते थे.सचिवालय तो पास ही पड़ता था.ट्रेन में  बिना टिकट चलने का अनैतिक कार्य कालिया जी के संघी साथी के सौजन्य से संपन्न होता था.आपात काल में भी एक-दो बार जाना हुआ.

मुझे तो वीरेंद्र चाचा के माध्यम से नौकरी नहीं मिली परन्तु मौसा जी ने गोपाल को उन्हीं के जरिये जाब दिलवा दिया.मुझे आगरा लौटना मजबूरी थी क्योंकि बाबूजी से पैसे  मंगा कर मेरठ टिके रहना उचित नहीं लगा.कभी-कभी मौसा जी से भी मिलने चले जाते थे.मौसी के न होने पर भी एक बार मौसा जी ने रोक लिया और रात का खाना खुद बना कर खिलाया था.महेश जो अब जीवित नहीं हैं ने उन्हें रोटी बेल कर दीं थीं.उस बार रात १२ बजे मेरठ कैंट पर उतरे थे.मेरा कमरा बाहर से बंद होता था ,अतः माकन-मालिक को परेशानी तो नहीं हुयी ;परन्तु अगले दिन उन्होंने पूंछा कैसे देर हो गयी.बताने पर उन्हें इत्मीनान हुआ

अब  मेरठ में और अधिक रुकने का कोई औचित्य नहीं था.मैंने बाबूजी को लिख दिया था शनिवार २८ जून को चल कर पेसेंजर से २९ की सुबह आगरा पहुंचूंगा.सारा सामन साथ था और तोता का ताल वाला मकान  छोड़ कर बाबूजी जिस मकान  में शिफ्ट हुए थे उसका नं.एवं कालोनी का मुझे पता नहीं था.यदि मेरा लेटर  समय से न पहुंचे तो बाबूजी का स्टेशन पहुंचना भी संभव न हो यह जोखिम थी.उस सूरत में उनके दफ्तर से भी पता चलना मुश्किल होता कारण रविवार होना. बहरहाल मेरठ कैंट से पुराणी दिल्ली और गाड़ी बदल कर फिर आगरा कैंट पहुंचे.स्टेशन पर बाबूजी मिल गए थे.

सवा तीन वर्ष नौकरी करने के बाद सवा तेईस वर्ष की उम्र में बेरोजगार हो कर आगरा -माता-पिता के पास पहुंचे.१९७५ से ०८ अक्टूबर २००९ तक कोई  चौंतीस वर्ष से अधिक आगरा में रहे.अर्थात एक चौथाई शताब्दी से भी अधिक समय जो आगरा में गुजरा उसका वर्णन होली के बाद.फिलहाल आप सबों को होली की बहुत-बहुत मुबारकवाद...........









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