सोमवार, 22 अगस्त 2011

आगरा/1984-85 (भाग-3)

21 फरवरी 1985 को रजिस्टर्ड डाक से मुझे टर्मिनेशन लेटर मिल गया और रोजाना हाजिरी लगाने जाने से छुट्टी हो गई। इसी के साथ-साथ अभी तक जो तीन-चौथाई वेतन सस्पेंशन एलाउंस के रूप मे मिल रहा था वह भी मिलना बंद हो गया। साढ़े-नौ वर्ष की ग्रेच्युटी का ड्राफ्ट भेजा गया था उसे अगले दिन बैंक मे जमा करा दिया। अब एक बार फिर नई नौकरी की तलाश की समस्या आ खड़ी हुयी थी। भयंकर बेरोजगारी के दौर मे नौकरी मिलना आसान काम न था। यों तो मेरे पास सवा तीन वर्ष सारू स्मेल्तिंग,मेरठ का और साढ़े नौ वर्ष मुगल होटल,आगरा का अनुभव था परंतु एक्सपेरिएन्स लेटर एक भी न था अतः किसी बड़ी क .के लिए एपलायी नहीं कर सकता था।

मैंने नौकरी करने के साथ-साथ साथियों को नौकरी मे अनेकों लाभ दिलवाए थे। एहसान फरामोशों की इस दुनिया मे जहां अधिकांश ने मुंह फेर लिया और कुछ थोथे दिलासे देते रहे। एक श्री हरीश चंद्र छाबरा ही मददगार के रूप मे सामने आए।

हरीश छाबरा 

09 जनवरी 1976 को जब अजय के मित्र के फुफेरे भाई करमाकर ने मेरे सिफ़ारिश पर नौकरी ज्वाइन  कर ली तो तत्काल क्षेत्रवाद से ग्रसित होकर मेरे विरोधी गुट मे शामिल हो गए। अतः 10 जनवरी 1976 को ज्वाइन करने वाले हरीश चंद्र छाबरा को मैंने गुप्त रूप से फौलादी समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया। उन पर आए हर संकट मे मैंने उनके कवच के रूप मे कार्य किया। यहाँ तक कि विवाद की स्थिति मे मैंने उन्हें उनके पर्चेज डिपार्टमेन्ट से स्थानांतरित करके अपने अधीन अकौंट्स विभाग मे रखवा लिया। साइंस ग्रेज्युएट छाबरा जी को अकौंट्स की पेचीदगियाँ भी समझा दी। मुगल मे आने से पूर्व वह 'दयाल बाग एजुकेशनल इन्स्टीच्यूट' के प्रिंसिपल के पी ए थे। उनके पर्चेज विभाग मे कार्य के दौरान भी मे ही उनमे  हीन भावना का निस्तारण कराता था।
वह सिन्धी समुदाय से आते हैं और उनके पिताजी स्व.भोजराज छाबड़िया रेलवे मे क्लर्क थे। जब रिटायरमेंट के बाद उनका बेलनगंज माल गोदाम वाला रेलवे क्वार्टर छूटा तो वे लोग बिल्लोच्च पूरा मे राशन दफ्तर के पास रहने लगे थे। हरीश जी की माता जी के निधन के समय  यू एफ सी देव सदय दत्ता साहब ने उन्हें बेहद परेशान किया था। यहाँ तक कि शम शान घाट पर शामिल होने के कारण मेरा भी एक दिन का वेतन उन्होने कटवा   दिया था लीव एप्लिकेशन रिजेक्ट करके । ए यू एफ सी विनीत सक्सेना साहब ने मुझे दो दिन के वेतन के बराबर  धन कन्वेंस एलाउंस के रूप मे उसके कंपेनसेशन के रूप मे भुगतान करा दिया था। एक माह बाद दत्त साहब ने उसी रिजेक्ट एप्लिकेशन को एप्रूव करके पुराने कटे वेतन का भी भुगतान करा दिया।

इन्ही हरीश जी के मित्र आयुर्वेदिक चिकित्सक ने मुझे 'आयुर्वेद रत्न' करने मे सहयोग और सहाता प्रदान की थी जिन्हें हम लोगों ने अपना घरेलू डा . और पंडित तथा ज्योतिष सलाहकार बना लिया था। आगरा मे मेरी शुरुआती पहचान हरीश जी के माध्यम से ही बनी थी। झंजावातो  के समय उन्हें मुझसे जो सहयोग मिला था उसके प्रतिकार् स्वरूप  उन्होने मुझे जाब दिलाने का भरोसा  दिलाया। उनके एक मौसेरे साढू हींग की मंडी मे जूता कारोबारी थे और वह तथा उनके बड़े भाई एक ही मकान मे ऊपर-नीचे रहते हुये अलग-अलग व्यापार करते थे। हरीश जी ने उनके बड़े भाई से मेरे बारे मे जिक्र किया था। 30 मार्च 1985 शनिवार के दिन हरीश जी मुझे उनकी दुकान पर लेकर गए। उनके पास पहले से उनके सहपाठी रहे एक सज्जन पार्ट-टाईम  अकाउंटेंट थे जो सी ओ डी मे सरकारी नौकरी करते थे।  उन महाशय ने मुझे फूल टाईम अकाउंटेंट के रूप मे 01-04-1985 सोमवार से ज्वाइन करने को कहा। ले दही-ला दही सूत्र के अनुसार उनका पलड़ा भारी था और मे वेतन के संबंध मे बार्गेनिंग की स्थिति मे नहीं था। रु 700/-प्रतिमाह देने का उनका प्रस्ताव था ,मरता क्या न करता   सूत्र के अनुसार मेरे पास स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था।

पहली अप्रैल मूर्ख दिवस से मैंने यह नई नौकरी प्रारम्भ की जिसमे न कोई एपवोइनमेंट लेटर था न कोई हाजिरी रेजिस्टर न ही कहीं मुझे कोई हस्ताक्षर किसी भी रूप मे करने थे। मुझे 1984-85 की बेलेन्स शीट बनाने का कार्य सौंपा गया और करेंट वर्क पार्ट-टाईम अकाउंटेंट ही शाम को आकर करते रहे।  मेरा जाब पोस्ट-मारटम जाब था। यह पहला मौका था जब इंडिपेंडेंट रूप से मुझे किसी फाइनेंशियल ईयर की बेलेन्स शीट अपने आप स्वतः फाइनल करनी थी। इसके पहले मेरठ की सारू स्मेल्तिंग प्राइवेट लि क थी और मुगल होटल पब्लिक लिमिटेड क I T  C के होटल डिवीजन का एक यूनिट था। दोनों जगह डिवीजन आफ वर्क था और मेरे पास सिर्फ
फाइनेंशियल पार्ट ही था। बेलेन्स शीट के फाइनलिजेशन का कार्य मेनेजर लोग करते थे। सिर्फ हाईस्कूल मे मेरे पास कामर्स थी। इंटर मे आते ही मैंने आर्ट साइड ले ली थी। इस प्रकार यह एक जबर्दस्त चुनौती थी जिसमे कार्य का मूल्यांकन भी प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं इन्कम टैक्स -सेल्स टैक्स कंसल्टेंट अर्थात वकील साहब द्वारा किया जाना था।

जिस व्यक्ति ने खतरों से खेलना अपना हाबी बना रखा हो वह घबरा कैसे सकता था?.................................... 

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4 टिप्‍पणियां:

  1. आपके संस्मरण में एक संदेश अवश्य होता है।

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  2. खतरा ही मंजिल तक ले जाता है.प्रेरक संस्मरण.

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  3. विचारपूर्ण रचना. आपका परिचय जान कर अच्छा लगा.
    यदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक विचार हेतु पढ़ें
    अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html

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  4. गुरूजी प्रणाम --आप का जीवन भी बहुत संघर्ष मय बिता !

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