13 जून पुण्य तिथि के अवसर पर
सरकारी कागजों मे बाबू जी की जन्मतिथि 04 सितंबर 1920 दर्ज रही होगी जिसके अनुसार उनका रिटायरमेंट 30 सितंबर 1978 को हुआ था। किन्तु उनके कागजों मे प्राप्त उनकी जन्मपत्री के अनुसार उनकी जन्मतिथि 24 अक्तूबर 1919 होगी। शुक्रवार,कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 1976 ,स्वाती नक्षत्र (चतुर्थ चरण)मे उनका जन्म होना लिखा है। आज जब उनकी मृत्यु हुये 17 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं अब अपने खुद के द्वारा किए उनकी जन्मपत्री के विश्लेषण को प्रस्तुत कर रहा हूँ।
(वैसे मेरा इरादा था और इस ब्लाग मे पहले मैंने घोषित भी किया था कि एक बार लखनऊ पुनः आने के बाद तक का विवरण संकलित हो जाने के बाद सब घटनाओं का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण दूंगा। किन्तु गत एक वर्ष से जबसे डॉ शोभा और उनके पति महाराज के बी माथुर साहब सुपुत्र स्व सरदार बिहारी माथुर साहब (अलीगढ़ वाले)लखनऊ होकर गए हैं उनकी छोटी पुत्री के नगर-पूना से मेरे तथा मेरे पुत्र यशवन्त के विरुद्ध षडयंत्रों की एक बाढ़ सी आ गई है। चंद्र प्रभा-ठगनी प्रभा-उर्वशी उर्फ बब्बी की तिकड़ी ने बड़े पैमाने पर हमे घेर कर नष्ट करने का उपक्रम किया हुआ है। हालांकि षड्यंत्रकारी सफल हो पाएंगे पूरे तौर पर संदिग्ध ही है किन्तु दुश्मन को कभी भी कमजोर नहीं समझने की अपनी प्रवृत्ति के तहत एहतियाती तौर पर बीच मे ही कुछ-कुछ ज्योतिषयात्मक विश्लेषण देते चलने का नया निर्णय लिया है जिसके अंतर्गत सर्व-प्रथम अपने बाबूजी की पुण्य तिथि पर उनकी जन्म-कुंडली की ओवर हालिंग से हासिल खास-खास नजीजे देने का प्रयास किया है। )
जन्मपत्री का विवरण-
लग्न-वृष और उसमे केतू ,तृतीय भाव मे- कर्क मे उच्च का ब्रहस्पति,चतुर्थ भाव मे -सिंह के मंगल,शुक्र,शनि,षष्टम भाव मे -तुला के चंद्र,सूर्य,बुध,सप्तम भाव मे-वृश्चिक का राहू।
जन्मपत्री मे स्पष्टत : 'काल -सर्प योग' है जिसकी या तो वैज्ञानिक शांति हमारे बाबाजी ने करवाई नहीं होगी या फिर 'ढोंग-पाखंड' के अनुसार 'चांदी के सर्प' दान करा दिये होंगे। जैसे मैंने सुना और कुछ देखा भी बाबूजी के समस्त कार्यों मे झंझट-झमेले ,अड़ंगे पड़ते रहे कोई कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न नही हुआ।फौज छोडने के बाद खेती देखना चाहते थे उनके सबसे बड़े भाई-भाभी ने परेशान किया पुनः एम ई एस मे नौकरी ज्वाइन कर ली। 1958-59 मे डालीगंज (जहां अब हम हैं से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर)उन्होने ज़मीन खरीदी जो बेचनी पड़ी मकान बना न सके। इन सबके आधार पर मेरा निष्कर्ष है कि 'काल-सर्प योग' की वैज्ञानिक शांति नहीं हुई होगी।
राहू की महादशा के अंतर्गत केतू की अंतर्दशा मे लगभग उनकी चार वर्ष की अवस्था मे दादी जी अर्थात उनकी माँ का देहांत हुआ । उनकी माँ के भाव मे मंगल और शनि क्रूर ग्रह थे शुक्र 'सौम्य' होते हुये भी शत्रु क्षेत्री था। 12 अप्रैल 1939 से उनकी गुरु की महादशा मे सूर्य की अंतर्दशा लगी थी जिसका पूर्वार्द्ध शुभ था तब उन्होने साथियों के साथ पढ़ाई छोड़ कर फौज ज्वाइन कर ली। 1945 मे जब उन्होने नौकरी जारी न रख कर खेती देखने का निर्णय किया तब उनकी शनि की महादशा मे शनि की ही अंतर्दशा चल रही थी जिस कारण सात साल की नौकरी मे पूरी की पूरी सेलरी बाबाजी को भेज देने के कारण उनकी जेब खाली थी। बाबाजी ने वह धन बड़े ताऊ जी और उनके बच्चों पर ही खर्च किया था। हानिप्रद समय मे फौज की नौकरी छोडना उनके लिए घातक रहा। यह कष्टदायक समय बुध की अंतर्दशा की समाप्ती -11 जून 1950 तक था। 12 जून 1950 से शनि की महादशा मे केतू की अंतर्दशा लगी जो 20जूलाई 1951 तक थी और यह 'शुभ' थी इसी समय उनका विवाह सम्पन्न हुआ। 21 जूलाई 1951 से 20 सितंबर 1954 तक शनि की महादशा मे 'शुक्र' की अंतर्दशा थी जो 'श्रेष्ठ'थी और इसी मध्य मेरा तथा छोटे भाई अजय का जन्म हुआ। अजय के जन्म के बाद ही फौज मे उनकी यूनिट के कंपनी कमांडर रहे अधिकारी ने जो तब तक लेफ्टिनेंट कर्नल हो चुके थे और कमांडर वर्क्स इंजीनियर के पद पर लखनऊ मे तैनात थे उन्हें MES मे क्लर्क के पद पर भर्ती करवा दिया।
21 सितंबर 1954 से 02 सितंबर 1955 तक शनि महादशांतर्गत सूर्य की अंतर्दशा थी जो 'हानिप्रद'होती है फिर 03 सितंबर 1955 से 02 अप्रैल 1957 तक 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो 'व्यवधान व चिंताजनक' थी और इसी समय छोटी बहन डॉ शोभा का जन्म हुआ है। ताजिंदगी उन्हें अपनी बेटी की ओर से फिक्र लगी रही।
03 अप्रैल 1957 से 11 मई 1958 तक 'मंगल' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'श्रेष्ठतम समय' था। इसी दौरान जेठ के बड़े मंगल पर अलीगंज के मंदिर मे बाबूजी का कुर्ता मेरी पकड़ से छूटने के कारण भीड़ मे कुचल जाने से मैं बचा और चारबाग के प्लेटफार्म से (मामा जी स्व डॉ कृपा शंकर माथुर के आस्ट्रेलिया हेतु बंबई जाते वक्त)अजय को अपहरण कर्ता एनाउंसमेंट होने के कारण ओवर ब्रिज पर छोड़ कर भाग गया। बाबूजी के श्रेष्ठतम समय मे (श्रेष्ठ समय मे जन्मे )दोनों पुत्र उनसे बिछुड्ते-बिछुड्ते बच गए।
18 मार्च 1961 से 29 सितंबर 1963 तक शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति की अंतर्दशा' थी जो उनके लिए -'व्यय प्रधान,पूर्ण कष्टदायक समय' था। इसी दौरान पहले लखनऊ से बरेली फिर वहाँ से चीन युद्ध के दौरान सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो गया। सिलीगुड़ी शुरू मे नान-फेमिली स्टेशन होने के कारण हम लोगों को शाहजहाँपुर अपने नानाजी के पास रहना पड़ा।
24 फरवरी 1967 से 23 दिसंबर 1969 तक उनका बुध की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा का समय था जो उनके लिए श्रेष्ठत्तम समय था। इसी दौरान मैंने सिलीगुड़ी से हाई स्कूल और मेरठ से इंटर्मेडिएट उत्तीर्ण किया किन्तु अजय को हाई स्कूल उत्तीर्ण करने मे दो एटेंम्प्ट लग गए।
30 अक्तूबर 1970 से 29 मार्च 1972 तक बाबूजी की बुध महादशांतर्गत 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'धन और व्यापार वृद्धि का समय' था। मैंने इसी समय मे ग्रेज्युएशन के बाद पढ़ाई छोडने और नौकरी करने का निर्णय लिया था अतः एक जन की पढ़ाई पर होने वाला उनका खर्च बचा। 30 मार्च 1972 से 26 मार्च 1973 तक 'बुध' मे 'मंगल' की अंतर्दशा उनके लिए श्रेष्ठतम थी और इसी दौरान महेश नानाजी (नानाजी के फुफेरे भाई)की कृपा से मुझे नौकरी मिल गई।
27 मार्च 1973 से 14 अक्तूबर 1975 तक 'बुध'मे 'राहू' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'कष्टदायक समय' था ।इसी दौरान अजय जो दयाल बाग आगरा मे मेकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहे थे को अपने साथियों के कारण खुद बेगुनाह होते हुये भी जेल जाना पड़ा। बाबूजी-बउआ को मेरठ से आगरा की दौड़ करनी पड़ी। मेरी सलाह पर उन्होने अपने खर्चे पर आगरा म्यूचुअल ट्रांसफर करवाया। मैं मेरठ मे नौकरी करता रहा। इसीदौरानBHEL,हरिद्वार मे मेषीनिस्ट के पद पर कार्यरत के बी माथुर साहब से शोभा की एंगेजमेंट अलीगढ़ जाकर की। अलीगढ़ से लौट कर भुआ और अजय मे तूफानी झगड़ा हुआ। (अलीगढ़ बाबू जी,भुआ, फूफाजी व शोभा ही गए थे)। भुआ ने अजय को काफी कोसा । इसके एक माह बाद अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे डॉ ने तीन दिन काफी खतरे के बताए थे। लगभग डेढ़ माह बाबूजी को अजय की तीमारदारी मे मेडिकल कालेज मे उसके साथ रहना पड़ा। इसके 06 माह बाद मेरठ की नौकरी से मेरी भी बर्खास्तगी हो गई और मैं पुनः बेरोजगार होकर आगरा आ गया। लेकिन 22 सितंबर 1975 से मैंने होटल मोगूल ओबेराय मे नौकरी ज्वाइन कर ली।
15 अक्तूबर 1975 से 20 जनवरी 1978 तक बाबूजी की 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'मृत्यु संम कष्ट ' का समय था। इसी दौरान 20 नवंबर 1975 को शोभा का कमलेश बिहारी माथुर साहब से 'शुभ विवाह' सम्पन्न हुआ।
21 जनवरी 1978 से 29 सितंबर 1980 तक बाबूजी का सामान्य समय चला और इसी दौरान 24 वर्ष की एम ई एस की नौकरी से रिटायर हुये। शोभा की बड़ी पुत्री 'रत्न-प्रभा' का जन्म अलीगढ़ मे हुआ और वह आगरा भी आई।
27 फरवरी 1981 से 26 अप्रैल 1982 तक बाबू जी 'केतू' की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए श्रेष्ठ समय था। इसी दौरान शोभा की छोटी पुत्री-'चंद्र-प्रभा' का जन्म झांसी मे हुआ। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब के माध्यम से मेरा विवाह भी हुआ। चूंकि बाबू जी की कुंडली मे 'चंद्र' षष्टम भाव मे शत्रु क्षेत्री है अतः 'चंद्र' की अंतर्दशा मे उन्हें अपने प्रथम पौत्र (यशवन्त का बड़ा भाई) का भी दुख सहना पड़ा जो जन्म से मात्र 12 घंटे ही जीवित रहा और जिसे जिंदा और मुर्दा दोनों प्रकार से वह देख न सके क्योंकि वह टूंडला मे जन्मा था।
30अगस्त 1983 से 17 सितंबर 1984 तक 'केतू' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए -'दुखपूर्ण' थी। इसी दौरान उनके द्वितीय पौत्र -'यशवन्त' का जन्म हुआ जो शुरू मे काफी बीमार रहा और इसी दौरान 'होटल मुगल शेरटन'से मेरा सस्पेंशन भी हुआ।
30 सितंबर 1987 से 29 जनवरी 1991 तक बाबू जी 'शुक्र' की महादशा मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए शुभ थी और इसी दौरान डॉ शोभा के पति महोदय (के बी माथुर साहब)की मेहरबानी से अजय का विवाह ग्वालियर जाकर सम्पन्न हुआ तथा इसी दौरान अजय की पुत्री का जन्म फरीदाबाद मे हुआ। बउआ-बाबूजी इस दौरान फरीदाबाद भी जाकर रह आए।
30 सितंबर 1993 से 29 नवंबर 1994 तक वह 'शुक्र' की महादशा मे 'मंगल' की अंतर्दशा मे थे जो उनके लिए 'श्रेष्ठ समय' था। इसी लिए इस दौरान अपनी बड़ी पुत्र-वधू (शालिनी) के निधन के बाद जब( के बी माथुर साहब के सहयोग और समर्थन से उनके भतीज दामाद) 'कुक्कू' और उनका भाई मुझे फँसाने के चक्कर मे थे विफल हो गए।
30 नवंबर 1994 से वह 'राहू' की अंतर्दशा मे आ गए थे वैसे तो यह समय 'सामान्य' था और इसी समय के दौरान उन्होने अपने पौत्र 'यशवन्त' से राय करके पटना के बी पी सहाय साहब के प्रस्ताव को स्वीकार करके उनकी पुत्री से विवाह करने को मुझे राज़ी किया। परंतु 13 जून(घड़ी मे 14 जून)1995 ,मंगलवार की रात्रि डेढ़ बजे उन्होने इस संसार को छोड़ दिया। हालांकि सोते समय रात्रि नौ बजे तक उन्होने खुद हैंड पंप चला कर पानी स्तेमाल किया था। मामूली बुखार था और वह भली-भांति चलते-फिरते रहे थे। भोजन अलबत्ता कम किया था। उनके पसंद की करेले की सब्जी मैंने बनाई तो थी जिसे उन्होने चखा भर था अगले दिन ठीक से खाने को कहा था जो फिर उन्होने देखा ही नहीं।
हमने आर्यसमजी विधि से शांति हवन कराया था। प्रतिवर्ष 13 जून को विशेष सात आहूतियों के साथ उनकी आत्मा की शांति हेतु घर पर हवन करते हैं। हम किसी भी प्रकार के 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को नहीं करते हैं। उनके छोटे बेटा करते हों तो हम कह नहीं सकते। माता-पिता के जीवन काल मे हम उन्हें संतुष्ट रख सके अथवा नहीं यह निर्णय तो हम खुद नहीं कर सकते परंतु प्रयास यथा-संभव किया था। अब केवल हवन ही सहारा है।
बाबू जी (निधन 13 जून 1995 ) और बउआ (निधन 25 जून 1995 ) |
सरकारी कागजों मे बाबू जी की जन्मतिथि 04 सितंबर 1920 दर्ज रही होगी जिसके अनुसार उनका रिटायरमेंट 30 सितंबर 1978 को हुआ था। किन्तु उनके कागजों मे प्राप्त उनकी जन्मपत्री के अनुसार उनकी जन्मतिथि 24 अक्तूबर 1919 होगी। शुक्रवार,कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 1976 ,स्वाती नक्षत्र (चतुर्थ चरण)मे उनका जन्म होना लिखा है। आज जब उनकी मृत्यु हुये 17 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं अब अपने खुद के द्वारा किए उनकी जन्मपत्री के विश्लेषण को प्रस्तुत कर रहा हूँ।
(वैसे मेरा इरादा था और इस ब्लाग मे पहले मैंने घोषित भी किया था कि एक बार लखनऊ पुनः आने के बाद तक का विवरण संकलित हो जाने के बाद सब घटनाओं का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण दूंगा। किन्तु गत एक वर्ष से जबसे डॉ शोभा और उनके पति महाराज के बी माथुर साहब सुपुत्र स्व सरदार बिहारी माथुर साहब (अलीगढ़ वाले)लखनऊ होकर गए हैं उनकी छोटी पुत्री के नगर-पूना से मेरे तथा मेरे पुत्र यशवन्त के विरुद्ध षडयंत्रों की एक बाढ़ सी आ गई है। चंद्र प्रभा-ठगनी प्रभा-उर्वशी उर्फ बब्बी की तिकड़ी ने बड़े पैमाने पर हमे घेर कर नष्ट करने का उपक्रम किया हुआ है। हालांकि षड्यंत्रकारी सफल हो पाएंगे पूरे तौर पर संदिग्ध ही है किन्तु दुश्मन को कभी भी कमजोर नहीं समझने की अपनी प्रवृत्ति के तहत एहतियाती तौर पर बीच मे ही कुछ-कुछ ज्योतिषयात्मक विश्लेषण देते चलने का नया निर्णय लिया है जिसके अंतर्गत सर्व-प्रथम अपने बाबूजी की पुण्य तिथि पर उनकी जन्म-कुंडली की ओवर हालिंग से हासिल खास-खास नजीजे देने का प्रयास किया है। )
जन्मपत्री का विवरण-
लग्न-वृष और उसमे केतू ,तृतीय भाव मे- कर्क मे उच्च का ब्रहस्पति,चतुर्थ भाव मे -सिंह के मंगल,शुक्र,शनि,षष्टम भाव मे -तुला के चंद्र,सूर्य,बुध,सप्तम भाव मे-वृश्चिक का राहू।
जन्मपत्री मे स्पष्टत : 'काल -सर्प योग' है जिसकी या तो वैज्ञानिक शांति हमारे बाबाजी ने करवाई नहीं होगी या फिर 'ढोंग-पाखंड' के अनुसार 'चांदी के सर्प' दान करा दिये होंगे। जैसे मैंने सुना और कुछ देखा भी बाबूजी के समस्त कार्यों मे झंझट-झमेले ,अड़ंगे पड़ते रहे कोई कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न नही हुआ।फौज छोडने के बाद खेती देखना चाहते थे उनके सबसे बड़े भाई-भाभी ने परेशान किया पुनः एम ई एस मे नौकरी ज्वाइन कर ली। 1958-59 मे डालीगंज (जहां अब हम हैं से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर)उन्होने ज़मीन खरीदी जो बेचनी पड़ी मकान बना न सके। इन सबके आधार पर मेरा निष्कर्ष है कि 'काल-सर्प योग' की वैज्ञानिक शांति नहीं हुई होगी।
राहू की महादशा के अंतर्गत केतू की अंतर्दशा मे लगभग उनकी चार वर्ष की अवस्था मे दादी जी अर्थात उनकी माँ का देहांत हुआ । उनकी माँ के भाव मे मंगल और शनि क्रूर ग्रह थे शुक्र 'सौम्य' होते हुये भी शत्रु क्षेत्री था। 12 अप्रैल 1939 से उनकी गुरु की महादशा मे सूर्य की अंतर्दशा लगी थी जिसका पूर्वार्द्ध शुभ था तब उन्होने साथियों के साथ पढ़ाई छोड़ कर फौज ज्वाइन कर ली। 1945 मे जब उन्होने नौकरी जारी न रख कर खेती देखने का निर्णय किया तब उनकी शनि की महादशा मे शनि की ही अंतर्दशा चल रही थी जिस कारण सात साल की नौकरी मे पूरी की पूरी सेलरी बाबाजी को भेज देने के कारण उनकी जेब खाली थी। बाबाजी ने वह धन बड़े ताऊ जी और उनके बच्चों पर ही खर्च किया था। हानिप्रद समय मे फौज की नौकरी छोडना उनके लिए घातक रहा। यह कष्टदायक समय बुध की अंतर्दशा की समाप्ती -11 जून 1950 तक था। 12 जून 1950 से शनि की महादशा मे केतू की अंतर्दशा लगी जो 20जूलाई 1951 तक थी और यह 'शुभ' थी इसी समय उनका विवाह सम्पन्न हुआ। 21 जूलाई 1951 से 20 सितंबर 1954 तक शनि की महादशा मे 'शुक्र' की अंतर्दशा थी जो 'श्रेष्ठ'थी और इसी मध्य मेरा तथा छोटे भाई अजय का जन्म हुआ। अजय के जन्म के बाद ही फौज मे उनकी यूनिट के कंपनी कमांडर रहे अधिकारी ने जो तब तक लेफ्टिनेंट कर्नल हो चुके थे और कमांडर वर्क्स इंजीनियर के पद पर लखनऊ मे तैनात थे उन्हें MES मे क्लर्क के पद पर भर्ती करवा दिया।
21 सितंबर 1954 से 02 सितंबर 1955 तक शनि महादशांतर्गत सूर्य की अंतर्दशा थी जो 'हानिप्रद'होती है फिर 03 सितंबर 1955 से 02 अप्रैल 1957 तक 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो 'व्यवधान व चिंताजनक' थी और इसी समय छोटी बहन डॉ शोभा का जन्म हुआ है। ताजिंदगी उन्हें अपनी बेटी की ओर से फिक्र लगी रही।
03 अप्रैल 1957 से 11 मई 1958 तक 'मंगल' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'श्रेष्ठतम समय' था। इसी दौरान जेठ के बड़े मंगल पर अलीगंज के मंदिर मे बाबूजी का कुर्ता मेरी पकड़ से छूटने के कारण भीड़ मे कुचल जाने से मैं बचा और चारबाग के प्लेटफार्म से (मामा जी स्व डॉ कृपा शंकर माथुर के आस्ट्रेलिया हेतु बंबई जाते वक्त)अजय को अपहरण कर्ता एनाउंसमेंट होने के कारण ओवर ब्रिज पर छोड़ कर भाग गया। बाबूजी के श्रेष्ठतम समय मे (श्रेष्ठ समय मे जन्मे )दोनों पुत्र उनसे बिछुड्ते-बिछुड्ते बच गए।
18 मार्च 1961 से 29 सितंबर 1963 तक शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति की अंतर्दशा' थी जो उनके लिए -'व्यय प्रधान,पूर्ण कष्टदायक समय' था। इसी दौरान पहले लखनऊ से बरेली फिर वहाँ से चीन युद्ध के दौरान सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो गया। सिलीगुड़ी शुरू मे नान-फेमिली स्टेशन होने के कारण हम लोगों को शाहजहाँपुर अपने नानाजी के पास रहना पड़ा।
24 फरवरी 1967 से 23 दिसंबर 1969 तक उनका बुध की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा का समय था जो उनके लिए श्रेष्ठत्तम समय था। इसी दौरान मैंने सिलीगुड़ी से हाई स्कूल और मेरठ से इंटर्मेडिएट उत्तीर्ण किया किन्तु अजय को हाई स्कूल उत्तीर्ण करने मे दो एटेंम्प्ट लग गए।
30 अक्तूबर 1970 से 29 मार्च 1972 तक बाबूजी की बुध महादशांतर्गत 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'धन और व्यापार वृद्धि का समय' था। मैंने इसी समय मे ग्रेज्युएशन के बाद पढ़ाई छोडने और नौकरी करने का निर्णय लिया था अतः एक जन की पढ़ाई पर होने वाला उनका खर्च बचा। 30 मार्च 1972 से 26 मार्च 1973 तक 'बुध' मे 'मंगल' की अंतर्दशा उनके लिए श्रेष्ठतम थी और इसी दौरान महेश नानाजी (नानाजी के फुफेरे भाई)की कृपा से मुझे नौकरी मिल गई।
27 मार्च 1973 से 14 अक्तूबर 1975 तक 'बुध'मे 'राहू' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'कष्टदायक समय' था ।इसी दौरान अजय जो दयाल बाग आगरा मे मेकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहे थे को अपने साथियों के कारण खुद बेगुनाह होते हुये भी जेल जाना पड़ा। बाबूजी-बउआ को मेरठ से आगरा की दौड़ करनी पड़ी। मेरी सलाह पर उन्होने अपने खर्चे पर आगरा म्यूचुअल ट्रांसफर करवाया। मैं मेरठ मे नौकरी करता रहा। इसीदौरानBHEL,हरिद्वार मे मेषीनिस्ट के पद पर कार्यरत के बी माथुर साहब से शोभा की एंगेजमेंट अलीगढ़ जाकर की। अलीगढ़ से लौट कर भुआ और अजय मे तूफानी झगड़ा हुआ। (अलीगढ़ बाबू जी,भुआ, फूफाजी व शोभा ही गए थे)। भुआ ने अजय को काफी कोसा । इसके एक माह बाद अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे डॉ ने तीन दिन काफी खतरे के बताए थे। लगभग डेढ़ माह बाबूजी को अजय की तीमारदारी मे मेडिकल कालेज मे उसके साथ रहना पड़ा। इसके 06 माह बाद मेरठ की नौकरी से मेरी भी बर्खास्तगी हो गई और मैं पुनः बेरोजगार होकर आगरा आ गया। लेकिन 22 सितंबर 1975 से मैंने होटल मोगूल ओबेराय मे नौकरी ज्वाइन कर ली।
15 अक्तूबर 1975 से 20 जनवरी 1978 तक बाबूजी की 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'मृत्यु संम कष्ट ' का समय था। इसी दौरान 20 नवंबर 1975 को शोभा का कमलेश बिहारी माथुर साहब से 'शुभ विवाह' सम्पन्न हुआ।
21 जनवरी 1978 से 29 सितंबर 1980 तक बाबूजी का सामान्य समय चला और इसी दौरान 24 वर्ष की एम ई एस की नौकरी से रिटायर हुये। शोभा की बड़ी पुत्री 'रत्न-प्रभा' का जन्म अलीगढ़ मे हुआ और वह आगरा भी आई।
27 फरवरी 1981 से 26 अप्रैल 1982 तक बाबू जी 'केतू' की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए श्रेष्ठ समय था। इसी दौरान शोभा की छोटी पुत्री-'चंद्र-प्रभा' का जन्म झांसी मे हुआ। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब के माध्यम से मेरा विवाह भी हुआ। चूंकि बाबू जी की कुंडली मे 'चंद्र' षष्टम भाव मे शत्रु क्षेत्री है अतः 'चंद्र' की अंतर्दशा मे उन्हें अपने प्रथम पौत्र (यशवन्त का बड़ा भाई) का भी दुख सहना पड़ा जो जन्म से मात्र 12 घंटे ही जीवित रहा और जिसे जिंदा और मुर्दा दोनों प्रकार से वह देख न सके क्योंकि वह टूंडला मे जन्मा था।
30अगस्त 1983 से 17 सितंबर 1984 तक 'केतू' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए -'दुखपूर्ण' थी। इसी दौरान उनके द्वितीय पौत्र -'यशवन्त' का जन्म हुआ जो शुरू मे काफी बीमार रहा और इसी दौरान 'होटल मुगल शेरटन'से मेरा सस्पेंशन भी हुआ।
30 सितंबर 1987 से 29 जनवरी 1991 तक बाबू जी 'शुक्र' की महादशा मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए शुभ थी और इसी दौरान डॉ शोभा के पति महोदय (के बी माथुर साहब)की मेहरबानी से अजय का विवाह ग्वालियर जाकर सम्पन्न हुआ तथा इसी दौरान अजय की पुत्री का जन्म फरीदाबाद मे हुआ। बउआ-बाबूजी इस दौरान फरीदाबाद भी जाकर रह आए।
30 सितंबर 1993 से 29 नवंबर 1994 तक वह 'शुक्र' की महादशा मे 'मंगल' की अंतर्दशा मे थे जो उनके लिए 'श्रेष्ठ समय' था। इसी लिए इस दौरान अपनी बड़ी पुत्र-वधू (शालिनी) के निधन के बाद जब( के बी माथुर साहब के सहयोग और समर्थन से उनके भतीज दामाद) 'कुक्कू' और उनका भाई मुझे फँसाने के चक्कर मे थे विफल हो गए।
30 नवंबर 1994 से वह 'राहू' की अंतर्दशा मे आ गए थे वैसे तो यह समय 'सामान्य' था और इसी समय के दौरान उन्होने अपने पौत्र 'यशवन्त' से राय करके पटना के बी पी सहाय साहब के प्रस्ताव को स्वीकार करके उनकी पुत्री से विवाह करने को मुझे राज़ी किया। परंतु 13 जून(घड़ी मे 14 जून)1995 ,मंगलवार की रात्रि डेढ़ बजे उन्होने इस संसार को छोड़ दिया। हालांकि सोते समय रात्रि नौ बजे तक उन्होने खुद हैंड पंप चला कर पानी स्तेमाल किया था। मामूली बुखार था और वह भली-भांति चलते-फिरते रहे थे। भोजन अलबत्ता कम किया था। उनके पसंद की करेले की सब्जी मैंने बनाई तो थी जिसे उन्होने चखा भर था अगले दिन ठीक से खाने को कहा था जो फिर उन्होने देखा ही नहीं।
हमने आर्यसमजी विधि से शांति हवन कराया था। प्रतिवर्ष 13 जून को विशेष सात आहूतियों के साथ उनकी आत्मा की शांति हेतु घर पर हवन करते हैं। हम किसी भी प्रकार के 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को नहीं करते हैं। उनके छोटे बेटा करते हों तो हम कह नहीं सकते। माता-पिता के जीवन काल मे हम उन्हें संतुष्ट रख सके अथवा नहीं यह निर्णय तो हम खुद नहीं कर सकते परंतु प्रयास यथा-संभव किया था। अब केवल हवन ही सहारा है।
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गुरूजी प्रणाम . मार्मिक ! आप के पिता जी के आत्मा को शांति मिले यही इश्वर से प्रार्थना है !
जवाब देंहटाएंबहुत ही गौरवशाली परंपरा .....नमन करता हूँ
जवाब देंहटाएंबाबू जी को नमन..
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