सोमवार, 25 जून 2012

बउआ पुण्य तिथि पर एक ज्योतिषयात्मक विश्लेषण

जननी,माँ और माता थीं हमारी बउआ

बउआ का चित्र -विवाह पूर्व


बाबू जी (निधन 13 जून 1995) के साथ बउआ (निधन 25 जून 1995)-चित्र 1978 का है 


बउआ की जन्म पत्री के अनुसार उनका जन्म 20अप्रैल 1924 अर्थात वैशाख कृष्ण प्रतिपदा ,रविवार ,संवत 1981 विक्रमी को 'स्वाती' नक्षत्र के चतुर्थ चरण मे हुआ था।

लग्न-सिंह और राशि-तुला थी।
लग्न मे-सिंह का राहू।
तृतीय भाव मे -तुला के चंद्र और शनि।
चतुर्थ भाव मे-वृश्चिक का ब्रहस्पति।
षष्ठम  भाव मे -मकर का मंगल।
सप्तम भाव मे -कुम्भ का केतू।
नवे भाव मे-मेष का सूर्य व बुध।
दशम भाव मे-वृष का शुक्र।

08 नवंबर 1948 से 10 नवंबर 1951 तक वह 'शनि'महादशांतर्गत 'शनि' की ही अंतर्दशा मे थीं जो उनके लिए 'कष्टदायक' समय था और इसी बीच उनका विवाह सम्पन्न हुआ था।यही कारण  रहा कि 'युद्ध काल' की फौज की नौकरी का पूरा का पूरा वेतन बाबाजी के पास भेज देने और बाबाजी द्वारा उसे बड़े ताऊजी के बच्चों पर खर्च कर देने के बावजूद बड़ी ताईजी ने बउआ को भूखों तड़पा दिया। 
11 नवंबर 1951  से 19 जूलाई 1954तक का समय लाभ-व्यापार वृद्धि का था। इसी काल मे मेरा जन्म हुआ और अजय का भी।अजय के जन्म के बाद बाबूजी को फौज की यूनिट के उनके कमांडर रहे और अब CWE के पद पर लखनऊ MES मे कार्यरत अधिकारी महोदय ने बाबूजी को भी जाब दिला दिया।
29 अगस्त 1955 से 28 अक्तूबर 1958 तक सुखदायक समय था और इसी बीच डॉ शोभा का जन्म हुआ।
 20 जून 1962 से 25 अप्रैल 1965 तक शनि महादशांतर्गत 'राहू' की अंतर्दशा का था जो उनके लिए 'कष्टप्रद,यंत्रणा और बाधायुक्त' था। -
बउआ को 'बाँके बिहारी मंदिर',वृन्दावन पर बड़ी आस्था थी। उन्होने अपने पास के   (नाना जी,मामा जे से मिले)रुपए देकर बाबूजी से वृन्दावन चलने को कहा। वहाँ से लौटते ही बरेली जंक्शन से गोला बाज़ार आने के  रास्ते मे बाबू जी को उनके दफ्तर के एक साथी ने सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो जाने की सूचना दी जो तब 'चीन युद्ध' के कारण नान फेमिली स्टेशन था। वस्तुतः बाबूजी की जन्म कुंडली मे 'ब्रहस्पति'तृतीय भाव मे 'कर्क' अर्थात अपनी उच्च राशि मे था और बउआ की जन्म कुंडली मे तृतीय भाव मे तुला का होकर 'शनि' उच्च का था एवं 'मंगल' षष्ठम भाव मे 'मकर' का होकर उच्च का था,नवें भाव मे 'मेष' का सूर्य उच्च का था,तथा दशम भाव मे 'वृष' का शुक्र स्व-ग्रही था। अर्थात बाबूजी और बउआ को तथा उनके धन से हम भाईयों - बहन को इन चीजों का दान नहीं करना चाहिए था-
1- सोना,पुखराज,शहद,चीनी,घी,हल्दी,चने की दाल,धार्मिक पुस्तकें,केसर,नमक,पीला चावल,पीतल और इससे बने बर्तन,पीले वस्त्र,पीले फूल,मोहर-पीतल की,भूमि,छाता आदि। कूवारी कन्याओं को भोजन न कराएं और वृद्ध-जन की सेवा न करें (जिनसे कोई रक्त संबंध न हो उनकी )।किसी भी मंदिर मे और मंदिर के पुजारी को दान नहीं देना चाहिए।
2-सोना,नीलम,उड़द,तिल,सभी प्रकार के तेल विशेष रूप से सरसों का तेल,भैंस,लोहा और स्टील तथा इनसे बने पदार्थ,चमड़ा और इनसे बने पदार्थ जैसे पर्स,चप्पल-जूते,बेल्ट,काली गाय,कुलथी, कंबल,अंडा,मांस,शराब आदि।
3- किसी भी प्रकार की मिठाई,मूंगा,गुड,तांबा और उससे बने पदार्थ,केसर,लाल चन्दन,लाल फूल,लाल वस्त्र,गेंहू,मसूर,भूमि,लाल बैल आदि।
4- सोना,माणिक्य,गेंहू,किसी भी प्रकार के अन्न से बने पदार्थ,गुड,केसर,तांबा और उससे बने पदार्थ,भूमि-भवन,लाल और गुलाबी वस्त्र,लाल और गुलाबी फूल,लाल कमल का फूल,बच्चे वाली गाय आदि।
5-
हीरा,सोना, सफ़ेद छींट दार चित्र और  वस्त्र,सफ़ेद वस्त्र,सफ़ेद फूल,सफ़ेद स्फटिक,चांदी,चावल,घी,चीनी,मिश्री,दही,सजावट-शृंगार की वस्तुएं,सफ़ेद घोडा,गोशाला को दान,आदि। तुलसी  की पूजा न करें,युवा स्त्री का सम्मान न करें ।

ये सब जांनकारीयेँ तथाकथित ब्राह्मण और पंडित तो देते नहीं हैं अतः बाबूजी  चाहे एक पैसा ही सही मंदिर मे चढ़ा भी देते थे,शनिवार को भड़री को तेल भी दिलवा देते थे, मंगल के दिन प्रशाद लगा कर मंदिर के बाहर चाहे किनका भर ही क्यों नहीं बच्चों को प्रशाद रूपी मिठाई भी दे देते थे। एक बार 'बद्रीनाथ' होकर आए थे तब से नियमतः वहाँ मंदिर के लिए रु 10/- या रु 15/-भेजते रहते थे। ये सब तमाम कारण परेशानियाँ बढ़ाने वाले थे जिंनका खुलासा अब अध्यन द्वारा मैं कर पाया हूँ और खुद सख्ती के साथ 'दान-विरोधी' रुख अख़्तियार किए हुये हूँ। आर्यसमाज की मुंबई से प्रकाशित पत्रिका'निष्काम परिवर्तन' मे भी मेरा दान विरोधी लेख छ्प चुका है।

1964 मे सिलीगुड़ी हम लोगों के जाने पर बउआ  को सारे शरीर मे एकजमा हो गया था और तभी से मुझे घर पर खाना बनाने मे बाबू जी की मदद करने की आदत पड़ गई थी जो बाद मे बउआ की मदद के रूप मे चलती रही।

26 अप्रैल 1965 से 07 नवंबर 1967 तक बउआ का शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का समय उनके लिए 'शुभ फलदायक' था। 1967 मे मैंने स्कूल फाइनल का इम्तिहान उत्तीर्ण कर लिया जबकि हमारे खानदान के बड़े भाई लोग (फुफेरे भाई भी )पहली अटेम्प्ट मे हाई स्कूल न पास कर सके थे।

02 अप्रैल 1971 से 01 फरवरी 1974 तक उनकी 'बुध' मे शुक्र की अंतर्दशा उनके लिए अनुकूल थी। इस दौरान मैंने बी ए पास कर लिया और 'सारू स्मेल्तिंग',मेरठ मे नौकरी भी प्रारम्भ कर दी,अजय ने भी हाईस्कूल के बाद मेकेनिकल इंजीनियरिंग ज्वाइन कर लिया और शोभा भी इंटर पास कर सकीं।हालांकि मौसी का निधन इसी बीच हुआ।
 02 फरवरी 1974से 07 दिसंबर 1974 तक उनके लिए 'बुध'  मे सूर्य की अंतर्दशा 'पद-वृद्धि' की थी। अतः शोभा की एंगेजमेंट हो गई।
08 दिसंबर 1974 से 07 मई 1976 तक उनकी शनि मे 'चंद्र' की अंतर्दशा 'शुभ' व 'मांगलिक कार्यों वाली थी। जबकि 1973 से 1978 तक का समय बाबूजी का बुध मे 'राहू'  और 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का 'कष्टदायक था। 
दिसंबर मे अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे वह बच गए, मेरी मेरठ की नौकरी जून  '75 मे  खत्म हुई किन्तु मुगल,आगरा मे सितंबर मे मिल गई। नवंबर '75 मे शोभा का विवाह सम्पन्न हुआ।
इन घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि विवाह के समय 'गुण'मिलान होने पर समस्याओं का समाधान भी सुगम हो जाता है। बउआ -बाबू जी के 28 गुण मिलते थे। संकट आए तो लेकिन निबट भी गए।  हालांकि बाबूजी और बउआ दोनों की जन्म लग्ने 'स्थिर' थीं किन्तु बउआ  की कुंडली के दशम भाव मे स्व्ग्रही होकर 'शुक्र' स्थित था जिसके कारण बाबूजी को ट्रांसफर का सामना करना पड़ा।  जो ज्योतिषी 'गुण-मिलान' की मुखालफत करते हैं वे वस्तुतः लोगों के भले का हित नहीं देखते हैं।
05 मई 1977 से 22 नवंबर 1979 तक  'बुध' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए 'कष्टकारक' थी। इसी बीच 21 सितंबर 1977 को मामाजी और 27 मार्च 1979 को नाना जी का निधन हो गया। इसी बीच जाड़ों मे खुले मे गरम पानी से अपनी बीमार रह चुकी पुत्री को नहलाने पर शोभा को उन्होने डांटा तो जाने तक वह अपनी माँ से मुंह फुलाए रहीं और चलते वक्त भी उनसे नमस्ते तक न करके गईं।
23 नवंबर 1979 से 28 फरवरी 1982 तक 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा उनके लिए-'कष्टदायक,अशुभ व बाधापूर्ण' थी। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब की मेहरबानी से और के बी साहब द्वारा डॉ रामनाथ को 'कुक्कू' से खरीदवा कर मात्र 14 गुणों पर (झूठ बोलकर रामनाथ ने 28 गुण मिलते बताए थे जो बाद मे मैंने पकड़ा था)शालिनी से मेरा विवाह हुआ था।
29 फरवरी 1982 से 07 नवंबर 1984 तक 'बुध' मे 'शनि' की अंतर्दशा थी जिसका उत्तरार्द्ध अनुकूल था। इसी दौरान उनके पौत्र 'यशवन्त'का जन्म हुआ। काफी गंभीर बीमार रहने के बावजूद वह स्वस्थ हुईं।
08 अक्तूबर 1987 से 10 नवंबर 1990 तक 'केतू' महादशा मे क्रमशः सूर्य,ब्रहस्पति और शनि की अंतर्दशाएन रहीं जो क्रमशः 'घोर बाधापूर्ण कष्ट','परेशानीपूर्ण' एवं 'हानीदायक' थीं। हालांकि इसी बीच अजय की शादी भी के बी माथुर साहब की मेहरबानी से सम्पन्न हुई किन्तु बीमारी,कूल्हे की हड्डी टूटना और आपरेशन का सामना करना पड़ा।
08 नवंबर 1991 से 07 मार्च 1995 तक 'शुक्र' मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा उनके लिए बाधा और कष्ट की थी। जबकि यह समय बाबूजी का श्रेष्ठ था। इसी बीच 16 जून 1994 को उनकी बड़ी पुत्र वधू-शालिनी का लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ। यह उनके लिए दिमागी झटका था।

08 मार्च 1995 के बाद 'शुक्र' मे 'सूर्य' की अंतर्दशा उनके लिए उन्नतिदायक होती और इस बीच उन्होने और बाबूजी ने मिल कर मुझ पर दबाव बनाया कि मैं पटना के सहाय साहब द्वारा अपनी पुत्री के लिए भेजा प्रस्ताव स्वीकार कर लूँ। उनको यशवन्त का समर्थन हासिल था ,लिहाजा मुझे उनकी बात माननी पड़ी। किन्तु निर्णय होने से पूर्व ही 13 जून 1995 को बाबूजी का देहांत हो गया और 25 जून 1995 को बउआ का भी निधन हो गया।  14 तारीख को जब हम लोग -यशवन्त समेत घाट पर गए हुये थे और घर पर मात्र डॉ शोभा,अजय की श्रीमती जी और उनकी पाँच वर्षीय पुत्री ही थे उनके दिमाग पर घातक अटेक हुआ और वह कुछ भी बोलने मे असमर्थ हो गईं। अजय और शोभा उन पर झल्लाते रहे किन्तु उन्होने कोई प्रतिक्रिया न दी।  जब इन लोगों ने मुझसे कहा कि तुम्ही पूछो तो मेरे प्रश्न के जवाब मे उनका उत्तर था-"क्या कहें,किस्से कहें?"यही उनके मुंह से निकला अंतिम वाक्य है फिर वह कुछ न बोल सकीं। हालांकि मुंह के अंदर जीभ चलती मालूम होती थी और लगता था कि कुछ कहना चाह रही हैं। डॉ अशोक गर्ग ने बताया था कि -'ब्रेन का रिसीविंग पार्ट डेमेज हो गया है'और यही स्थिति चलती रहेगी जब तक शेष जीवन है। हालांकि मेरे पास बहुत साहित्य था किन्तु 'संस्कृत' मे कमजोर होने के कारण वाचन मे भी पिछड़ता था और उस वक्त-मौके पर ध्यान भी न आया। अब 'जनहित' मे वह 'सुदर्शन कवच' दे रहा हूँ जिसके बारे मे डॉ नारायण दत्त श्रीमाली ने   1981 मे प्रकाशित एक पत्रिका मे लिखा है कि  उनके मित्र 'हरी राम जी'का पुत्र 17 वर्ष की उम्र मे आम तोड़ते हुये कमर के बल गिर गया था किन्तु वह अवचेतन हो गया था  और  पटना मेडिकल कालेज मे डाक्टरों ने 48 घंटों से पूर्व होश न आने की बात कही थी।किन्तु उन्होने मात्र 11 बार 'सुदर्शन कवच' का वाचन किया था कि बच्चे को होश आ गया जिस पर डॉ लोग हैरान थे और उनसे डाक्टरों ने  इसे हासिल कर लिया और कई गंभीर रोगियों को इसके सहारे ' अन -कानशसनेस' से मुक्ति दिलाई। हालांकि मैं तो अपनी माताजी को इससे लाभ न दिला सका परंतु दूसरे रोगों मे इसका सटीक प्रभाव देखते हुये इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ,हालांकि हमारी बहन -डॉ शोभा लोगों का भला मुफ्त मे करने की मेरे आदत की कड़ी विरोधी हैं।

हमारी बउआ न केवल 'जननी'वरन माँ और माता भी थीं । उन्होने चरित्र निर्माण ,आत्म-निर्भरता,आत्म-विश्वास और परोपकार के भाव हम सब मे डाले। यह दूसरी बात है कि बहन भाई उन सिद्धांतों को सही नहीं मानते और उनसे हट गए लेकिन मैं आज भी उनके सिद्धांतों को ठीक मानते हुये उन्हीं पर चलने का प्रयास करता रहता हूँ। 






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