रविवार, 16 अक्तूबर 2011

आगरा/1988 -89 (भाग-4)/फरीदाबाद - यात्रा-1

आगरा से चलते समय हमने बहन को सूचित कर दिया था कि हम फरीदाबाद होते हुये आएंगे उन्हें वहाँ जाना ही था सो वे लोग मेरे सामने ही पहुंचे। गलती यह हुई कि मैंने लाल भाई साहब (मौसेरे भाई)को भी सूचित कर दिया था ,वह और भाभी जी भी कुछ घंटों के लिए आ गए थे। मुझे ध्यान रखना चाहिए था कि वह मेरा घर नहीं भाई का था। उन लोगो  को जो दिक्कत हुई उसका हेतु मै बना। खैर मै तो दो दिन रुक कर लौट आया था ,बहन रही होंगी।
पी एफ कालोनी के क्वार्टर मे अजय किसी को किराया देकर रहते थे। घर छोटा था।

सितम्बर मे अजय की पुत्री के जन्म की सूचना आने पर शालिनी ने अपने बड़े होने के नाते और इसलिए भी कि बउआ को करने की दिक्कत होती है मेवा पाग कर और भी कुछ सामान तैयार कर दिया। मै और यशवन्त फरीदाबाद गए । इस बार शालिनी नहीं गई क्योंकि मुजफ्फरनगर से लौटने पर वहाँ जाने का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। चूंकि सिटी के क्वार्टर पर शालिनी अपनी माँ या भाभी के अकेले होने पर जाती थी तो इस बार उनकी माता से कहा था कि वह कमलानगर आकर अपनी बेटी के पास रुक जाएँ। वह नहीं आई ,रात अकेले गुजार कर भय के कारण शालिनी अगले दिन सिटी के क्वार्टर पर चली गई और घर मे ताला लगा दिया। इसलिए दो दिन बाद जब हम लौटे तो ताला देख कर कमलानगर से सिटी स्टेशन गए और फिर वहाँ से शालिनी को साथ लेकर वापिस कमलानगर आए। यदि पहले से मालूम होता तो राजा-की -मंडी स्टेशन से सीधे ही सिटी स्टेशन जाते। ऐसा था उन लोगों का सहयोग जिन्हें हम पूरा सहयोग देते थे।

फरीदाबाद जाते समय गलती से हम ऐसी गाड़ी 'मालवा एक्स्प्रेस' मे बैठ गए जिसका स्टापेज ही फरीदाबाद मे न था। वस्तुतः हमे जी टी एक्स्प्रेस पकड़ना था और वह लेट  हो गई तथा उसके समय पर पहले से लेट मालवा एक्स्प्रेस आ गई ,हमने नाम की तख्ती नहीं देखी ,अनाउंसमेंट भी न सुना था। मजबूरन 'हजरत निज़ामुद्दीन' स्टेशन तक जाना पड़ा। टिकट फरीदाबाद तक का ही था। टिकट चेकर ने प्रश्न उठाया वह पेनालटी  भी लगा सकता था किन्तु यशवन्त का आधा टिकट हमने लिया हुआ था। उनसे यह भी कहा हमे अब लौटने का अतिरिक्त भार भी पड़ रहा है। वह मान गए और हमे जाने दिया।

दिल्ली की टैक्सी ने हरियाणा बार्डर पर छोड़ दिया वहाँ से टू सीटर लेकर अजय के मकान तक गए। हमारे पास सामान काफी था,बउआ-बाबूजी के ऊनी कपड़ों का सन्दूक भी साथ ले गए थे जाड़ों हेतु । अजय ने यशवन्त को जो पालना दिया था उसे भी हम पेंट करके लेते आए थे। जब हम घर पहुंचे वहाँ उस समय बाबूजी और बउआ ही मिले, अजय उसी दिन अपनी पुत्री को अस्पताल से लेकर आए। मुझे महसूस हुआ हमारा वहाँ पहुँचना ,भले ही हम कुछ भी सामान ले गए हो ,किसी को भी अच्छा नहीं लगा।

भलाई करने पर भी बुराई प्राप्त होना मेरे लिए नई बात न थी। भतीजी होने की खुशी मनाने गए थे मन मे परेशानी का सामना करना पड़ा ,लौट कर भी घर से इधर-उधर भटकना पड़ा। ....... 

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