मुजफ्फरनगर से लौटते मे सब के साथ और अनुमिता के जन्म पर केवल यशवन्त के साथ जाने पर छोटे भाई के यहाँ जाने के अनुभव अच्छे नहीं रहे थे। बउआ ने पत्र मे पूछा था कि क्या लड़की मूलों मे हुई है?मैंने पत्रा देख कर उसकी पुष्टि कर दी तो वहाँ बाबूजी ने भतीजी के मूल 54 वें दिन शांत करा दिये थे। यशवन्त के मुंडन तो कमलानगर आगरा मे हुये थे किन्तु उसकी चचेरी बहन के मुंडन फरीदाबाद मे हुये। मेरे इच्छा तो नहीं थी कि फिर वहाँ जाऊ और शायद बउआ-बाबूजी को भी एहसास था कि मै अब नहीं आना चाहता तो उन्होने बहन को झांसी से आगरा हमारे पास रुकते हुये आने को कह दिया। लिहाजा बहन और उनके परिवार के साथ ही हम लोगों को भी जाना ही पड़ा। इस बार भी जी टी नहीं मिली और किसी दूसरी गाड़ी मे बैठे थे। कमलेश बाबू ने दिल्ली से लौट कर आने की बात कही थी किन्तु फरीदाबाद स्टेशन से पहले सिग्नल पर किसी ने चेन खींच दी और तमाम लोग उतर रहे थे ,हम लोग भी उतर गए और समय तथा पैसा बच गया ,केवल एक किलो मीटर पटरी के सहारे पैदल चलना पड़ा।
अनुमिता के मुंडन कार्यक्रम मे मुख्य भूमिका उसके फूफा जी अर्थात कमलेश बाबू की थी। कमलेश बाबू के छोटे भाई दिनेश को भी बुलाया था जो फरीदाबाद मे ही कहीं रहते थे। उस समय वह केल्विनेटर इंडिया मे काम करते थे। दिनेश की पत्नी रीता भी किसी रिश्ते से बाबूजी की भतीजी होती हैं। वे लोग दिन का खाना खा कर शाम तक चले गए थे। अजय के एक मित्र सिंगला साहब (जिनके साथ मिल कर बाद मे उन्होने ठेके पर काम भी शुरू किया) वैसे ही किसी काम से आए थे उन्हें बुलाया नहीं था। उनके मांगने पर एक ग्लास पानी केवल दिया गया ,घर मे मिठाई रखे होने बेटी के मुंडन पर्व को सम्पन्न करने के बाद भी खाली पानी पिलाना अच्छा नहीं लगा और यह बउआ-बाबूजी की अपनी परंपरा के भी विरुद्ध था। वे चुप-चाप तमाशा देखते रहे,सिंगला साहब के जाने के बाद मैंने पूछा तो बउआ ने कह दिया जैसी अजय की मर्जी। लेकिन आगरा मे मै तो अपनी मर्जी चला नहीं सकता था ,मुझे तो उनके हिसाब से चलना पड़ता था। यही गरीब-अमीर का अंतर होता है जो घर-परिवार मे भी बखूबी चलता है।
दो दिन बाद हम लोग आगरा लौट लिए। दुकान के सेठ जी छुट्टी देने मे हमे कभी भी आना-कानी नहीं करते थे। वेतन और बढ़ाने की मांग पर उन्होने वकील साहब से कह कर कमलानगर निवासी एक और जूता व्यापारी के यहाँ पार्ट-टाईम काम दिलवा दिया। अतिरिक्त श्रम तो करना पड़ा रात्रि आठ बजे से नौ बजे तक उनके घर अकाउंट्स कर आते थे उनका घर हमारे घर के पास ही था। ये लोग खोजे मुस्लिम थे। खोजे मुस्लिम ईसाई से मुसलमान बने लोग होते हैं उनके नियम अलग होते हैं। रफीक चरानिया साहब के घर बेहद साफ-सफाई थी। उनकी माता जी बाहर के लोगों को घर के बर्तनों मे चाय आदि नहीं देती थीं परंतु मुझे चाय अपने बेटे के ही साथ घर के बर्तनों मे दे देती थीं। रफीक साहब के पिताजी की मृत्यु बस एक्सीडेंट से हुई थी और उन्होने जिक्र किया था कि उनके पिताजी की डेड बाडी सामने होते हुये भी उनकी माता जी से डा सारस्वत ने अपनी फीस की डिमांड कर दी। चिकित्सक के पेशे मे यह अजीब चरित्र था। अक्सर चिकित्सक मरीज की मृत्यु हो जाने पर अपनी फीस नहीं लेते थे।
रफीक साहब अकेले थे उनकी बहन की शादी हो चुकी थी अतः कई बार उनकी माता जी ने कलकत्ता से रसोगुल्ला के आए टीन के डिब्बों मे से एक-एक मुझे दिये थे। कच्चे केले सब्जी के वास्ते उनके पड़ौसी द्वारा प्रदान करने पर भी उनकी माता जी ने मुझे दे दिये। वे लोग कर्मचारी के रूप मे नहीं पड़ौसी के रूप मे ही मेरे साथ व्यवहार करते थे। रफीक साहब की शादी होने पर उनकी पत्नी से ही चाय-मिठाई उनकी माता जी ने परोसवाई थी । बाद मे रफीक साहब आगरा से काम समेट कर अपनी सुसराल कलकत्ता चले गए थे। ..........
अनुमिता के मुंडन कार्यक्रम मे मुख्य भूमिका उसके फूफा जी अर्थात कमलेश बाबू की थी। कमलेश बाबू के छोटे भाई दिनेश को भी बुलाया था जो फरीदाबाद मे ही कहीं रहते थे। उस समय वह केल्विनेटर इंडिया मे काम करते थे। दिनेश की पत्नी रीता भी किसी रिश्ते से बाबूजी की भतीजी होती हैं। वे लोग दिन का खाना खा कर शाम तक चले गए थे। अजय के एक मित्र सिंगला साहब (जिनके साथ मिल कर बाद मे उन्होने ठेके पर काम भी शुरू किया) वैसे ही किसी काम से आए थे उन्हें बुलाया नहीं था। उनके मांगने पर एक ग्लास पानी केवल दिया गया ,घर मे मिठाई रखे होने बेटी के मुंडन पर्व को सम्पन्न करने के बाद भी खाली पानी पिलाना अच्छा नहीं लगा और यह बउआ-बाबूजी की अपनी परंपरा के भी विरुद्ध था। वे चुप-चाप तमाशा देखते रहे,सिंगला साहब के जाने के बाद मैंने पूछा तो बउआ ने कह दिया जैसी अजय की मर्जी। लेकिन आगरा मे मै तो अपनी मर्जी चला नहीं सकता था ,मुझे तो उनके हिसाब से चलना पड़ता था। यही गरीब-अमीर का अंतर होता है जो घर-परिवार मे भी बखूबी चलता है।
दो दिन बाद हम लोग आगरा लौट लिए। दुकान के सेठ जी छुट्टी देने मे हमे कभी भी आना-कानी नहीं करते थे। वेतन और बढ़ाने की मांग पर उन्होने वकील साहब से कह कर कमलानगर निवासी एक और जूता व्यापारी के यहाँ पार्ट-टाईम काम दिलवा दिया। अतिरिक्त श्रम तो करना पड़ा रात्रि आठ बजे से नौ बजे तक उनके घर अकाउंट्स कर आते थे उनका घर हमारे घर के पास ही था। ये लोग खोजे मुस्लिम थे। खोजे मुस्लिम ईसाई से मुसलमान बने लोग होते हैं उनके नियम अलग होते हैं। रफीक चरानिया साहब के घर बेहद साफ-सफाई थी। उनकी माता जी बाहर के लोगों को घर के बर्तनों मे चाय आदि नहीं देती थीं परंतु मुझे चाय अपने बेटे के ही साथ घर के बर्तनों मे दे देती थीं। रफीक साहब के पिताजी की मृत्यु बस एक्सीडेंट से हुई थी और उन्होने जिक्र किया था कि उनके पिताजी की डेड बाडी सामने होते हुये भी उनकी माता जी से डा सारस्वत ने अपनी फीस की डिमांड कर दी। चिकित्सक के पेशे मे यह अजीब चरित्र था। अक्सर चिकित्सक मरीज की मृत्यु हो जाने पर अपनी फीस नहीं लेते थे।
रफीक साहब अकेले थे उनकी बहन की शादी हो चुकी थी अतः कई बार उनकी माता जी ने कलकत्ता से रसोगुल्ला के आए टीन के डिब्बों मे से एक-एक मुझे दिये थे। कच्चे केले सब्जी के वास्ते उनके पड़ौसी द्वारा प्रदान करने पर भी उनकी माता जी ने मुझे दे दिये। वे लोग कर्मचारी के रूप मे नहीं पड़ौसी के रूप मे ही मेरे साथ व्यवहार करते थे। रफीक साहब की शादी होने पर उनकी पत्नी से ही चाय-मिठाई उनकी माता जी ने परोसवाई थी । बाद मे रफीक साहब आगरा से काम समेट कर अपनी सुसराल कलकत्ता चले गए थे। ..........
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शुभ दीपावली,
जवाब देंहटाएंदीपावली केशुभअवसर पर मेरी ओर से भी , कृपया , शुभकामनायें स्वीकार करें
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंदिवाली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|
आपके पोस्ट पर आना बहुत अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । दीपावली की शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंGuruji pranam बहुत ही अनोखी , बहुत सुन्दर ! दीपावली के शुभ बेला पर --दीपावली की शुभ कामनाएं !
जवाब देंहटाएंmy new links of blogs--
जवाब देंहटाएंबालाजी के लिए --www.gorakhnathbalaji.blogspot.com
OMSAI के लिए-- www.gorakhnathomsai.blogspot.com
रामजी के लिए --- www.gorakhnathramji.blogspot.com