सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-3 )

1990-91 का काल कई अलग-अलग क्षेत्रों मे अलग-अलग किस्म की हलचलो का काल रहा। जहां नौकरी मे सेठ जी का विवादस्पद केस ससम्मान सुलझ गया। राजनीति मे अचानक नई ज़िम्मेदारी ओढनी पड़ी।'सप्तदिवा-साप्ताहिक' मे मै सहायक संपादक था और उसकी सहकारी समिति मे  शेयर होल्डर भी परंतु प्रधान संपादक जो वस्तुतः उसके मालिक ही थे ने अपने फासिस्ट फाइनेंसर के दबाव मे मेरे लेखों मे संशोधन कराने चाहे जो न करके मैंने लेख वापिस मांग लिए उन्हें अब 'क्रांतिस्वर' पर क्रमशः प्रकाशित कर रहा हूँ।  भाकपा ,आगरा के कोशाध्यक्ष डॉ राम गोपाल सिंह चौहान जो बीमारी मे घर से कार्य-निष्पादन कर रहे थे उनकी तकलीफ बढ़ गई और उन्होने जिला मंत्री रमेश मिश्रा जी के समक्ष प्रस्ताव रखा की उनका चार्ज मुझे दिला दे। हालांकि मै जिला काउंसिल का सदस्य तो था परंतु कार्यकारिणी मे नहीं था। पहले से मौजूद पुराने और तपे-तपाये नेताओं की बजाए  मेरे जैसे चार-पाँच वर्ष पुराने एक छोटे कार्यकर्ता को अचानक एक इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देने को मिश्रा जी सहर्ष तैयार हो गए और सीधे मेरे घर आकर मुझसे चल कर चौहान साहब को रिलीव करने को कहा। जब मैंने इंकार कर दिया तो उन्होने बाबूजी की ओर मुखातिब होकर कहा आप कह दीजिये। बाबूजी ने मिश्रा जी के जवाब मे मुझ से कहा कि जब सेक्रेटरी साहब का आदेश है और वह खुद चल कर आए हैं तो' तुम अवहेलना' कैसे कर सकते हो?मेरे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उसी वक्त मिश्रा जी की मोपेड़ पर उनके साथ डॉ चौहान के घर पहुंचे। मै वैसे उनका हाल-चाल पूछने जाता ही रहता था। परंतु मिश्रा जी और मेरे द्वारा उनका सुझाव सिरोधार्य करने पर वह बेहद खुश हो गए। उन्होने अपनी पुत्री डॉ रेखा पतसरिया से पार्टी अकाउंट्स और कैश मुझे दिलवा दिया। उन्होने यह भी आश्वासन दिया कि कभी भी उनका परामर्श मुझे चाहिए तो वह जरूर देंगे,बाकी अकाउंट्स का आदमी होने के कारण कार्य करना मेरे लिए आसान रहेगा, यह भी उन्होने जोड़ दिया। मिश्रा जी ही मुझे मेरे घर पर छोड़ गए। मैंने मिश्रा जी से शर्त कर ली थी कि कोई भी पेमेंट मै उनके(जिला मंत्री)के हस्ताक्षर के बगैर नहीं करूंगा। पहले तो मिश्रा जी ने कहा था कि उन्होने कभी किसी पेमेंट पर दस्तखत नहीं किए है सब डॉ चौहान खुद करते रहे हैं। परंतु बाद मे उन्होने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया था।


डॉ रामगोपाल सिंह चौहान जब शाहजहाँपुर मे पढ़ते थे तो का .महादेव नारायण टंडन (जो आगरा मे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक माने जाते थे और उन्हीं के नाम पर अब नया पार्टी कार्यालय-का .महादेव नारायण टंडन भवन कहलाता है) उन्हें अपने साथ आगरा ले आए थे और छात्र राजनीति मे सक्रिय कर दिया था उसके बाद आगरा कालेज मे प्रो .रहते हुये वह पार्टी के जिला मंत्री फिर उस समय लंबे वक्त से कोशाध्यक्ष थे। आगरा कालेज की स्पोर्ट्स क्लब मे भी वह सक्रिय थे। आगरा कालेज का स्टाफ बंगला-6,हंटले हाउस सिर्फ डॉ चौहान का निवास ही नहीं था वरन पार्टी की बड़ी,महत्वपूर्ण बैठकें वहीं होती थी। रिटायरमेंट के बाद अपने हिन्दी विभाग मे ही कार्यरत प्रो.डॉ रेखा के नाम उस बंगले को करवा लिया था। डॉ रेखा ईपटा और चौहान साहब की दूसरी नाट्ट्य-संस्था मे भी सक्रिय थीं जिसमे उनके पति विनय पतसरिया, एडवोकेट भी सक्रिय थे।

मैंने डॉ चौहान से प्राप्त अकाउंट्स चेक किया तो पाया कि उनका अपना लगभग रु 2500/-पार्टी पर खर्च हो चुका था क्योंकि वह अपने सेविंग्स अकाउंट के माध्यम से आपरेट कर रहे थे उनके ध्यान मे नहीं आया था। मैंने मिश्रा जी को रिपोर्ट की तो उन्होने पार्टी के आडीटर हरीश आहूजा ,एडवोकेट साहब से आडिट करवाकर चौहान साहब को कैश लौटा देने का आदेश कर दिया। जब डॉ चौहान को रु 2500/-लौटाने मै उनके घर गया तो उन्होने कैश अपनी बेटी डॉ रेखा को सौंपते हुये कहा कि इसी ईमानदारी की वजह से मैंने इसे अपना उत्तराधिकारी चुना था वरना दूसरा कामरेड भी लौटाता यह जरूरी नहीं था,पार्टी फंड की हिफाजत यही कामरेड कर सकता था । उन्हें इलाज पर उस समय खर्च को देखते हुये डूबा धन मिलने से राहत हुई।

क्रमशः........ 

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शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-2 )

सेठ जी का इन्कम टैक्स का केस श्रीमती आरती साहनी ने एसेस्मेंट दोबारा करने का आदेश इन्कम टैक्स आफिसर फूल सिंह जी को दे दिया। सारी पुस्तकें सीज करते समय श्रीमती साहनी पैकिंग नोट और इनवाईस बुक्स जमा कराना भूल गई थीं । इसी का फायदा उठा कर वकील साहब ने उन्हे केस इस प्रकार पेश किया कि,शक के आधार पर वह केस दोबारा खोल दें। अब वकील साहब ने मुझ से कहा कि सारी इनवाईसेज इस प्रकार तैयार करनी हैं कि जो स्टाक बेलेन्स शीट मे दिखाया गया है उससे एक जोड़ी जूते का फर्क आ जाये। वस्तुतः ये व्यापारी स्टाक रेजिस्टर तो रखते नहीं हैं और जितना प्रतिशत लाभ दिखाना चाहते हैं उसी के हिसाब से स्टाक घटा या बढ़ा देते हैं। इस मामले मे भी यही था ,अतः रेट घटा कर मात्रा बढ़ा कर बिल दोबारा बनाए गए और स्टाक एडजस्ट किया गया । पूरा प्रकरण काफी दिमाग खाने का था । जब वकील साहब के मुताबिक बिल बुक्स तैयार हो गई तो आई टी ओ साहब के समक्ष पेश की गई। फूल सिंह जी ने अध्यन करके खूब माथा-पच्ची कर ली और कोई गलती न पकड़ सके ,केवल जो अंतर वकील साहब ने जान-बूझ कर डलवाया था वही था और उसे खुद वकील साहब ने ही इंगित कर दिया था। फ़ाईनल एसेस्मेंट के दिन आई टी ओ साहब ने सेठ जी से कहा कि,तुम्हें वकील साहब और अकाउंटेंट अच्छे मिल गए हैं वरना तो तुम बुरी तरह फंस चुके थे,इन दोनों ने तुम्हारी गर्दन बचा ली है अब तुम ही बताओ क्या दण्ड लगाया जाये। वकील साहब ने आई टी ओ साहब को सुझाव दिया कि -बुक्स आफ अकाउंट्स रिजेक्ट कर दें । उन्होने हँसते हुये फैसला लिखा और वकील साहब का सुझाव मानते हुये मात्र रु 10000/-का अर्थ दण्ड लगा कर सूचना अपीलेट कमिश्नर श्रीमती आरती साहनी को भेज दी। एक ईमानदार अधिकारी के रूप मे सख्ती दिखा कर श्रीमती साहनी ने सेठ जी को रिश्वत देने के प्रयास का अच्छा सबक सिखाया था कई वर्ष तक उनकी नींद और चैन उड़ा रहा था। आई टी ओ साहब को जो भेंट दिये होंगे परंतु मुझेऔर जैसा वकील साहब ने मुझे बताया वकील साहब को भी एक बताशा भी नहीं खिलाया जबकि पहले ढाई लाख तक पेनल्टी देने को तैयार बैठे थे।

काम का एक ही प्रभाव था कि अब काम सेठ जी के आदेश पर नहीं मेरे अपनी इच्छा पर निर्भर हो गया था। मै
कम्यूनिस्ट पार्टी के काम से भी दिन मे दुकान से उठ कर बता कर चला जाता था वह मना नहीं करते थे। पहले सिर्फ दूसरे स्टाफ को दीपावली पर गिफ्ट के साथ जूते देते थे अब मुझे भी देना शुरू कर दिया था। कई बार ज्योतिषीय सलाह भी मुझ से कर लेते थे और बात मान भी लेते थे। ...... 

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मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-1 )-फरीदाबाद यात्रा-2

मुजफ्फरनगर से लौटते मे सब के साथ और अनुमिता के जन्म पर केवल यशवन्त के साथ जाने पर छोटे भाई के यहाँ जाने के अनुभव अच्छे नहीं रहे थे। बउआ ने पत्र मे पूछा था कि क्या लड़की मूलों मे हुई है?मैंने पत्रा देख कर उसकी पुष्टि कर दी तो वहाँ बाबूजी ने भतीजी के मूल 54 वें दिन शांत करा दिये थे। यशवन्त के मुंडन तो कमलानगर आगरा मे हुये थे किन्तु उसकी चचेरी बहन के मुंडन फरीदाबाद मे हुये। मेरे इच्छा तो नहीं थी कि फिर वहाँ जाऊ और शायद बउआ-बाबूजी को भी एहसास था कि मै अब नहीं आना चाहता तो उन्होने बहन को झांसी से आगरा हमारे पास रुकते हुये आने को कह दिया। लिहाजा बहन और उनके परिवार के साथ ही हम लोगों को भी जाना ही पड़ा। इस बार भी जी टी नहीं मिली और किसी दूसरी गाड़ी मे बैठे थे। कमलेश बाबू ने दिल्ली से लौट कर आने की बात कही थी किन्तु फरीदाबाद स्टेशन से पहले सिग्नल पर किसी ने चेन खींच दी और तमाम लोग उतर रहे थे ,हम लोग भी उतर गए और समय तथा पैसा बच गया ,केवल एक किलो मीटर पटरी के सहारे पैदल चलना पड़ा।

अनुमिता के मुंडन कार्यक्रम मे मुख्य भूमिका उसके फूफा जी अर्थात कमलेश बाबू की थी। कमलेश बाबू के छोटे भाई दिनेश को भी बुलाया था जो फरीदाबाद मे ही कहीं रहते थे। उस समय वह केल्विनेटर इंडिया मे काम करते थे। दिनेश की पत्नी रीता भी किसी रिश्ते से बाबूजी की भतीजी होती हैं। वे लोग दिन का खाना खा कर शाम तक चले गए थे। अजय के एक मित्र सिंगला साहब (जिनके साथ मिल कर बाद मे उन्होने ठेके पर काम भी शुरू किया) वैसे ही किसी काम से आए थे उन्हें बुलाया नहीं था। उनके मांगने पर एक ग्लास पानी केवल दिया गया ,घर मे मिठाई रखे होने बेटी के मुंडन पर्व को सम्पन्न करने के बाद भी खाली पानी पिलाना अच्छा नहीं लगा और यह बउआ-बाबूजी की अपनी परंपरा के भी विरुद्ध था। वे चुप-चाप तमाशा देखते रहे,सिंगला साहब के जाने के बाद मैंने पूछा तो बउआ ने कह दिया जैसी अजय की मर्जी। लेकिन आगरा मे मै तो अपनी मर्जी चला नहीं सकता था ,मुझे तो उनके हिसाब से चलना पड़ता था। यही गरीब-अमीर का अंतर होता है जो घर-परिवार मे भी बखूबी चलता है।

 दो दिन बाद हम लोग आगरा लौट लिए। दुकान के सेठ जी छुट्टी देने मे हमे कभी भी आना-कानी नहीं करते थे। वेतन और बढ़ाने की मांग पर उन्होने वकील साहब से कह कर कमलानगर निवासी एक और जूता व्यापारी के यहाँ पार्ट-टाईम काम दिलवा दिया। अतिरिक्त श्रम तो करना पड़ा रात्रि  आठ बजे से नौ बजे तक उनके घर अकाउंट्स कर आते थे उनका घर हमारे घर के पास ही था। ये लोग खोजे मुस्लिम थे। खोजे मुस्लिम ईसाई से मुसलमान बने लोग होते हैं उनके नियम अलग होते हैं। रफीक चरानिया साहब के घर बेहद साफ-सफाई थी। उनकी माता जी बाहर के लोगों को घर के बर्तनों मे चाय आदि नहीं देती थीं परंतु मुझे चाय अपने बेटे के ही साथ घर के बर्तनों मे दे देती थीं। रफीक साहब के पिताजी की मृत्यु बस एक्सीडेंट से हुई थी और उन्होने जिक्र किया था कि उनके पिताजी की डेड बाडी सामने होते हुये भी उनकी माता जी से डा सारस्वत  ने अपनी फीस की डिमांड कर दी। चिकित्सक के पेशे मे यह अजीब चरित्र था। अक्सर चिकित्सक मरीज की मृत्यु हो जाने पर अपनी फीस नहीं लेते थे।

रफीक साहब अकेले थे उनकी बहन की शादी हो चुकी थी अतः कई बार उनकी माता जी ने कलकत्ता से रसोगुल्ला के आए टीन के डिब्बों मे से एक-एक मुझे दिये थे। कच्चे केले सब्जी के वास्ते उनके पड़ौसी  द्वारा प्रदान करने पर भी उनकी माता जी ने मुझे दे दिये। वे लोग कर्मचारी के रूप मे नहीं पड़ौसी के रूप मे ही मेरे साथ व्यवहार करते थे। रफीक साहब की शादी होने पर उनकी पत्नी से ही चाय-मिठाई उनकी माता जी ने परोसवाई थी । बाद मे रफीक साहब आगरा से काम समेट कर अपनी सुसराल कलकत्ता चले गए थे। .......... 

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बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

आगरा/1988-89 (भाग-5)-मध्यावधि चुनाव

राजीव गांधी की बोफोर्स कांड पर गिरती हुई साख और वित्त मंत्री के रूप मे उद्योगपतियों पर आय कर के डलवाए छापों से राजीव गांधी की असंतुष्टि के कारण वी पी सिंह ने कांग्रेस छोड़ कर 'जन-मोर्चा'गठित कर लिया था। उनके सहयोगी थे उनके भतीज दामाद संजय सिंह (जिनहोने बाद मे वी पी की भतीजी गरिमा सिंह को तलाक दे कर टेनिस खिलाड़ी मोदी की विधवा अमिता मोदी से विवाह कर लिया),आरिफ़ मोहम्मद खान और अरुण नेहरू (जो राजीव गांधी के ममेरे भाई थे)। इन तीनों ने नारा दिया था-'तख्त बदल दो,ताज बदल दो-बेईमानों का राज बदल दो  ' इन लोगों ने वी पी के बारे मे प्रचार किया था-'यह राजा नहीं फकीर है,भारत की तकदीर है'। हमारे मेरठ कालेज के पूर्व अध्यक्ष सतपाल मलिक(जो अब भाजपा मे हैं,तब समाजवादी थे -मधुलिम्ये और राजनारायन के हिमायती रहे थे )भी वी पी के जन-मोर्चा मे महत्वपूर्ण पदाधिकारी थे। हमारी कम्यूनिस्ट पार्टी भी वी पी का समर्थन कर रही थी। इस लिए जब राजीव गांधी ने संसद भंग करके मध्यावधि चुनावों की घोषणा की तो आगरा मे सभी स्थानों पर कम्यूनिस्ट पार्टी ने वी पी के जनता दल को समर्थन दिया किन्तु दयालबाग विधान सभा क्षेत्र से अपने उम्मीदवार मलपुरा के ग्राम प्रधान ओम प्रकाश राजपूत को खड़ा किया । हालांकि उन्हें पार्टी का चुनाव चिन्ह नहीं एलाट हुआ परंतु समस्त प्रचार कम्यूनिस्ट पार्टी के झंडे के साथ चला। इसमे भाग लेने हेतु भी मै सेठ जी को बता कर चला जाता था ।

अक्सर मिश्रा जी मुझे अपने साथ मलपुरा ले जाते थे। एक बार किशन बाबू श्रीवास्तव साहब भी अपने साथ ले गए थे जो राटौटी शाखा के ब्रांच सेक्रेटरी थे।वह रहते हमारी कालोनी के निकट ही गांधीनगर मे थे। उनकी पत्नी मंजू श्रीवास्तव पार्टी की महिला शाखा मे सक्रिय थीं और उन्होने शालिनी को भी पार्टी मे शामिल कर लिया था। उनके बच्चों के साथ यशवन्त काफी घुल-मिल गया था।

मतगणना के दिन और वोटिंग के दिन भी मेरी भी ड्यूटी मिश्रा जी ने रखी थी। ओम प्रकाश जी की बिरादरी कल्याण सिंह के कारण भाजपा की समर्थक थी किन्तु मलपुरा मे उन्होने बेहद काम कराया था अतः उनकी भी समर्थक थी। लोकसभा के लिए उनके वोट भाजपा प्रत्याशी भगवान शंकर रावत,एडवोकेट को पड़े तो विधान सभा दयालबाग  क्षेत्र मे ओम प्रकाश जी को।

वी पी के जनता दल के प्रत्याशी दयालबाग मे विजय सिंह राणा थे। उन्होने मिश्रा जी से बहौत अनुरोध किया कि ओम प्रकाश जी को हटा ले। उसी क्षेत्र मे कांग्रेस प्रत्याशी अतर सिंह यादव (जो बाद मे सपा मे शामिल हुये )
थे। आर बी एस कालेज के प्राचार्य और भाकपा नेता का जवाहर सिंह धाकरे ने पार्टी प्रत्याशी को न समर्थन देकर अपने कालेज के प्रवक्ता और कांग्रेस प्रत्याशी अतर सिंह यादव का प्रचार किया। सी पी एम वाले विजय सिंह राणा का प्रचार कर रहे थे। अतः ओम प्रकाश जी जीत तो न पाये किन्तु भाजपा प्रत्याशी को भी नहीं जीतने दिया और जनता दल प्रत्याशी विजय सिंह राणा जीत गए। जीतने के बाद राणा साहब ने मिश्रा जी का आभार व्यक्त किया कि यदि कम्यूनिस्ट प्रत्याशी को मिले वोट उनके न खड़े होने पर जाति के आधार पर  भाजपा को पड़ते तो वह जीतता अतः कम्यूनिस्ट उम्मीदवार ने खड़े रह कर भाजपा को हराने मे मदद ही की।

केंद्र मे वी पी सिंह प्रधान मंत्री और यू पी मे मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। हमारी पार्टी के दोनों से संबंध मधुर थे। पार्टी की अंदरूनी बैठकों मे का लल्लू सिंह चौहान आगाह करते थे कि मुलायम सिंह जातिवादी हैं उनसे सावधान रहने की जरूरत है। उनका आंकलन शायद ठीक था ,बाद मे मुलायम सिंह ने यहाँ भाकपा को तोड़ा और काफी बाद मे प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की मदद से यू पी के मुख्यमंत्री भी फिर बने। अब भी वह कभी रामदेव तो कभी अन्ना हज़ारे का खुला समर्थन करते हैं।


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रविवार, 16 अक्तूबर 2011

आगरा/1988 -89 (भाग-4)/फरीदाबाद - यात्रा-1

आगरा से चलते समय हमने बहन को सूचित कर दिया था कि हम फरीदाबाद होते हुये आएंगे उन्हें वहाँ जाना ही था सो वे लोग मेरे सामने ही पहुंचे। गलती यह हुई कि मैंने लाल भाई साहब (मौसेरे भाई)को भी सूचित कर दिया था ,वह और भाभी जी भी कुछ घंटों के लिए आ गए थे। मुझे ध्यान रखना चाहिए था कि वह मेरा घर नहीं भाई का था। उन लोगो  को जो दिक्कत हुई उसका हेतु मै बना। खैर मै तो दो दिन रुक कर लौट आया था ,बहन रही होंगी।
पी एफ कालोनी के क्वार्टर मे अजय किसी को किराया देकर रहते थे। घर छोटा था।

सितम्बर मे अजय की पुत्री के जन्म की सूचना आने पर शालिनी ने अपने बड़े होने के नाते और इसलिए भी कि बउआ को करने की दिक्कत होती है मेवा पाग कर और भी कुछ सामान तैयार कर दिया। मै और यशवन्त फरीदाबाद गए । इस बार शालिनी नहीं गई क्योंकि मुजफ्फरनगर से लौटने पर वहाँ जाने का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। चूंकि सिटी के क्वार्टर पर शालिनी अपनी माँ या भाभी के अकेले होने पर जाती थी तो इस बार उनकी माता से कहा था कि वह कमलानगर आकर अपनी बेटी के पास रुक जाएँ। वह नहीं आई ,रात अकेले गुजार कर भय के कारण शालिनी अगले दिन सिटी के क्वार्टर पर चली गई और घर मे ताला लगा दिया। इसलिए दो दिन बाद जब हम लौटे तो ताला देख कर कमलानगर से सिटी स्टेशन गए और फिर वहाँ से शालिनी को साथ लेकर वापिस कमलानगर आए। यदि पहले से मालूम होता तो राजा-की -मंडी स्टेशन से सीधे ही सिटी स्टेशन जाते। ऐसा था उन लोगों का सहयोग जिन्हें हम पूरा सहयोग देते थे।

फरीदाबाद जाते समय गलती से हम ऐसी गाड़ी 'मालवा एक्स्प्रेस' मे बैठ गए जिसका स्टापेज ही फरीदाबाद मे न था। वस्तुतः हमे जी टी एक्स्प्रेस पकड़ना था और वह लेट  हो गई तथा उसके समय पर पहले से लेट मालवा एक्स्प्रेस आ गई ,हमने नाम की तख्ती नहीं देखी ,अनाउंसमेंट भी न सुना था। मजबूरन 'हजरत निज़ामुद्दीन' स्टेशन तक जाना पड़ा। टिकट फरीदाबाद तक का ही था। टिकट चेकर ने प्रश्न उठाया वह पेनालटी  भी लगा सकता था किन्तु यशवन्त का आधा टिकट हमने लिया हुआ था। उनसे यह भी कहा हमे अब लौटने का अतिरिक्त भार भी पड़ रहा है। वह मान गए और हमे जाने दिया।

दिल्ली की टैक्सी ने हरियाणा बार्डर पर छोड़ दिया वहाँ से टू सीटर लेकर अजय के मकान तक गए। हमारे पास सामान काफी था,बउआ-बाबूजी के ऊनी कपड़ों का सन्दूक भी साथ ले गए थे जाड़ों हेतु । अजय ने यशवन्त को जो पालना दिया था उसे भी हम पेंट करके लेते आए थे। जब हम घर पहुंचे वहाँ उस समय बाबूजी और बउआ ही मिले, अजय उसी दिन अपनी पुत्री को अस्पताल से लेकर आए। मुझे महसूस हुआ हमारा वहाँ पहुँचना ,भले ही हम कुछ भी सामान ले गए हो ,किसी को भी अच्छा नहीं लगा।

भलाई करने पर भी बुराई प्राप्त होना मेरे लिए नई बात न थी। भतीजी होने की खुशी मनाने गए थे मन मे परेशानी का सामना करना पड़ा ,लौट कर भी घर से इधर-उधर भटकना पड़ा। ....... 

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बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

आगरा/1988 -89 (भाग-3 )-मुजफ्फरनगर यात्रा

दुकानों की नौकरी मे और तो कोई परेशानी नहीं थी परंतु वेतन अपर्याप्त था। अतः यदा-कदा बेहतर नौकरी के लिए प्रयास करते रहते थे। चूंकि होटल अकाउंट्स का साढ़े नौ वर्ष का अनुभव था  सहारनपुर के एक नए  होटल के लिए आवेदन कर दिया था। भूल भी चुके थे ,वहाँ से इनटरवीयू काल आ गया। निश्चित तिथि से एक दिन पहले मुजफ्फरनगर कुक्कू के यहाँ चले गए क्योंकि वह बेहद बुलाते रहते थे और रास्ते मे उनका शहर पड़ रहा था। हालांकि कूकू की माता जी नहीं चाहती थीं कि मै उनके घर जाऊ। यह भी एक कारण रहा उनके घर जरूर जाने का । लगभग ढाई-तीन बजे कूकू साहब के घर गांधी कालोनी पहुंचा था। उनका आफिस पास ही था अतः उनकी श्रीमती जी ने नेहा और शिवम को उनके दफ्तर भेजा ,वह वहाँ नहीं थे किसी साईट पर गए हुये थे, अतः दोबारा उन दोनों को भेज कर आफिस से उन्हें फोन कराने को कहा और उन्हें गर्म समौसे लाने को भी कह दिया।

औपचारिक हाल चाल पूछ कर कूकू साहब की श्रीमती जी (हमारे बहनोई कमलेश बाबू की भतीजी जैसा अब 2011 मे उनसे  पता चल पाया) ने अपनी सास साहिबा की करामात का बखान कर डाला क्योंकि वह जानती थी कि मै पहले ही उनसे नाखुश हूँ अतः उन्हें कोई भय नहीं था। उन्होने आप बीती जो घटना बताई वह हृदय विदारक है। उन्होने बताया कि उनकी सास जी ने उनके रेलवे वाले देवर शरद मोहन माथुर की मार्फत षड्यंत्र करके उन्हें दोनों बच्चों समेत मारने की हिमाकत की थी। उनके अनुसार टूंडला वाली बुढिया से उनके विरुद्ध टोटका करवाकर उनका दिमाग अस्त-व्यस्त कर दिया गया था जिससे वह बच्चों को लेकर विपरीत दिशा की ट्रेन मे बैठ कर चली गई। कूकू जब टिकट लेकर आए तो उन लोगों को नहीं पाया और चूंकि कूकू तथा उनकी पत्नी मधु दोनों के पिता रेलवे के थे वह तमाम नियमों आदि से परिचित थे। काफी दौड़-धूप के बाद उन्होने मधु को बच्चों समेत बरामद कर लिया। परंतु सारा सामान गायब हो गया जिसमे वह गहना भी था जिसे वह संगीता (मधु की देवरानी) की कस्टडी से ले कर आ रही थीं। उनका शक था शरद मोहन ने ही अपने रेलवे साथियों की मदद से सब सामान पार कर दिया है। (1982 मे कूकू ने अपनी माँ के साथ मुझ पर उसी टूँड़ला वाली बुढ़िया से कुछ करवाया था जो मै आगरा मे बस से उतरते समय गिर कर घायल हुआ था और डा राजेन्द्र कुमार टंडन ने इलाज के साथ पुलिस को फोन करना चाहा था किन्तु बाबूजी ने रोक दिया था ,इस का जिक्र पहले हो चुका है)। बड़ी जल्दी कूकू की पत्नी पर उन्ही के छोटे भाई द्वारा वही षड्यंत्र किया गया जैसा उन्होने अपनी माँ के इशारे पर मेरे साथ किया था। प्रकृति मे देर है पर अंधेर नहीं मैंने मन मे सोचा किन्तु मधु को दिये आश्वासन  के अनुसार किसी से इस घटना का जिक्र नहीं किया। 

अगले दिन कूकू साहब मेरे साथ बस से सहारनपुर भी गए उन्होने सहारनपुर साईट का टूर लगा लिया था। आने-जाने का बस का टिकट मेरा भी उन्ही ने लिया मुझे नहीं लेने दिया। होटल मे मेरा एपोइनमेंट रु 1300/- वेतन पर किया गया मैंने रु 1500/- मांगे थे अतः मैंने ज्वाइनिंग से इंकार कर दिया। लच होटल की तरफ से सभी उम्मीदवारों को कराया गया था। कूकू साहब मुझसे कह कर गए थे उन्ही के साथ लौटूँ अतः उनके इंतजार मे आस-पास ऐसे ही घूम लिया।

मै अपने साथ जो साबुन नहाने व कपड़ा धोने के तथा सिर मे डालने हेतु जो तेल ले गया था उन्हें मधु ने अपने पास रख कर अपने घर से नया साबुन इत्यादि दिया। लौटते मे मेरा सामान मेरे सुपुर्द कर दिया। अतिथि सत्कार मे वह अपनी सास के मुक़ाबले काफी चौकस रहीं जबकि उनकी सास उन्हें पगली कहती थीं। बातचीत मे यह बात मालूम होकर कि शरद की छोटी बेटी का पहला  जन्मदिन पहली मई को अर्थात पंद्रह दिन बाद पड़ रहा है। कूकू साहब ने रात के भोजन के बाद सबको घूमने ले चल कर क्राकरी वाले ,भोजन वाले इत्यादि को एडवांस दे दिया और अपने घर अपनी भतीजी का पहला जन्मदिन मनाने का निर्णय किया। मेरे सामने तो उनकी पत्नी मधु ने खुशी -खुशी उनका समर्थन और साथ दिया था बावजूद इसके कि उनके मन मे शरद और संगीता के प्रति घृणा भाव था। कूकू साहब ने मुझसे कहा था वह पत्र अपनी माता को डाक से भेज रहे हैं परंतु मै उनका निर्णय व्यक्तिगत रूप से दे दूँ। मुझे जाना तो उनके घर था ही क्योंकि यशवन्त और शालिनी उनके सिटी वाले क्वार्टर पर थे कारण कि हमारे बाबूजी व बउआ अजय के पास फरीदाबाद गए हुये थे और घर मे अकेले रहना शालिनी ने कबूल नहीं किया था।

मैंने जब लौट कर कूकू साहब की सूचना उनकी माता जी को दी तो उन्हें धक्का लगा। वह मधु से चिढ़ती थीं लेकिन कूकू से बेहद लगाव था। वह कहती थीं कि उन्हें केवल अपने पाँच बच्चों से ही लगाव है। अर्थात उन्हें अपने बच्चों के बच्चों से कोई लगाव नही था,  इसी कारण यशवन्त को भी उपेक्षा से देखती थीं और शायद इसीलिए अपने पोता - पोती को भी उनकी माँ मधु के कारण गायब कराना चाहती रही होंगी। उन्होने शालिनी को हिदायत दी कि वह कूकू के घर न जाएँ जबकि मै कूकू और उनकी पत्नी को वचन दे आया था कि उनकी बहन/नन्द को और भांजे को जरूर लेकर आऊँगा। काफी द्वंद और दबाव के बाद मै शालिनी को अपने बड़े भाई के यहाँ जाने को बाध्य कर सका ,उन्होने अपनी माँ के आदेश का पालन करना जरूरी समझा था बजाए अपने पति की बात और इज्जत रखने के। शालिनी की छोटी बहन सीमा ने अपनी माँ के आदेश का अक्षरशः पालन किया और वे लोग मुजफ्फरनगर नहीं पहुंचे जबकि रेलवे का होने के कारण योगेन्द्र को कुछ खास खर्चा नहीं पड़ता। शालिनी की बड़ी बहन रागिनी ने अपनी माँ के आदेश का आधा पालन किया ,वह खुद न आई न बच्चों को भेजा केवल उनके पति अनिल साहब अकेले पहुँच गए। मेरे कारण सिर्फ शालिनी द्वारा ही अपनी माता के उल्लंघन की घटना घटित हुई।

कूकू साहब का बंदोबस्त काफी अच्छा था उन्होने दिल खोल कर खर्च किया था। तमाम उनके आफिस के इंजीनियर और दूसरे स्टाफ की शिरकत रही। आस-पास के पड़ौसी और उनके कुछ रिश्तेदार भी शामिल हुये। लौट कर मैंने शालिनी से कारण जानना चाहा कि क्यों उनकी माता वहाँ जाने से रोकना चाह रही थीं और वह क्यों उनकी बात मानना चाह रही थी। शालिनी ने जो जवाब दिया वह हैरतअंगेज था- उनका कहना था भाभी जी (मधु)दोहरे स्वभाव की हैं ,सामने कुछ कहती हैं पीछे कुछ और ,और सबको कोसती हैं । तब मैंने मेरे पहले मुजफ्फरनगर जाने के दौरान मधु द्वारा बताया घटना -क्रम बता कर उसकी सच्चाई जानना चाहा और यह भी कि उन्होने मुझे इस बाबत क्यों नहीं बताया?शालिनी का जवाब न बताने के बारे मे उनकी माँ की कड़ी हिदायत थी। घटना छिपाना उनकी माँ और और दूसरे रेलवे वाले भाई की इज्जत बचाने हेतु था।

यही बात जब मैंने अपने माता-पिता के फरीदाबाद से लौटने पर   उन्हें बताई तो उनका कहना था वे इन बातों को जानते हैं । मेरे यह पूछने पर कि वे कैसे जानते हैं तो उन्होने बताया कि शोभा- कमलेश बिहारी ने उन्हें बताया था और मुझे बताने को मना किया था इसलिए वे छिपाए रहे। वाह क्या कमाल रहा मेरे पत्नी के रूप मे शालिनी ने इसलिए छिपाया कि उन्हें उनकी माँ ने ऐसा आदेश दिया था। और मेरे माता-पिता ने इसलिए छिपाया कि उनके बेटी-दामाद ऐसा चाहते थे। हमारे बहन-बहनोई शालिनी की माता के मंसूबे क्यों पूरे कर रहे थे ?क्या रहस्य था?हालांकि अब सब उजागर हो गया है उसका वर्णन अभी नहीं फिर कभी। 

हो सकता है शालिनी ने अपनी भाभी संगीता और माता को बताया हो कि उनकी मधु भाभी ने मुझसे भेद बता दिया है। एक बार अकेले मौका पड़ने पर संगीता उसी घटना को लक्ष्य करके सफाई दे रही थी कि भाभी जी (उनकी जेठानी मधु) का दिमाग सही काम नहीं करता है और वह उल्टी-सीधी बातें करती हैं। वह अपना गहना पार करने का शक उनके (संगीता)ऊपर रखती हैं। क्या उन्होने मुझसे कुछ कहा था?मैंने उन्हें स्पष्ट इंन्कार कर दिया क्योंकि मै अब तक सारा घटनाक्रम समझ चुका था और जतलाना नहीं चाहता था कि सब की सारी पोलें मुझे मालूम हैं। ऊपर-ऊपर से शरद और संगीता कुछ जतलाना नहीं चाहते थे परंतु उनकी माता के दृष्टिकोण से साफ था वह मेरे और विरुद्ध हो गई थीं ,उन्हें भय था कि कहीं मै कूकू की पत्नी मधु को सहयोग न कर दूँ । यदि ऐसा होता तो उन्हें बहौत भारी पड़ता कि उनकी बड़ी पुत्रवधू और बीच का दामाद भी उनके खिलाफ क्यों हैं?मेरा दृष्टिकोण साफ था/है कि मै किसी के घरेलू मामलों मे हस्तक्षेप नहीं करता हूँ चाहे मुझे खुद कितना भारी नुकसान होता रहे। मै किसी की घरेलू फूट से अपना फायदा नहीं चाहता वरना चुटकियों मे शालिनी की माता से अपने अपमान और नुकसान का बदला उन्ही की बड़ी पुत्रवधू को सहयोग देकर ले सकता था।वैसे मैंने मधु को भी सहानुभूति का पात्र नहीं समझा था क्योंकि उनके पति कुक्कू अपनी माता के कुचक्रों मे साझीदार रहे हैं। तब यदि वह अपने पति को गलत चाल चलने से रोक पाती तो दूसरी बात थी। फिर खुद उन्होने भी अपनी नन्द को यह कह कर गुमराह किया था कि तुम बड़ी हो अपनी चलाना। सास -श्वसुर को अपनी बात मनवाने के लिए बुद्धि की जरूरत होती है यों ही नहीं घुमाया जा सकता। लिहाजा तटस्थ रहना ही उचित था।

लौटते मे हम लोग फरीदाबाद अजय के घर बाबूजी -बउआ से मिलते हुये आए थे ,उसका वर्णन अगली बार........


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रविवार, 9 अक्तूबर 2011

आगरा/1988-89 (भाग-2)

मिश्रा जी के मकान मे ही शरद ने अपनी बेटी के होने की कथा कराई थी और हमारे माता-पिता को शामिल होने हेतु निमंत्रण देने को योगेंदर को भेजा था। बउआ तो नहीं गईं उन्होने बाद मे जाकर नई लड़की को हथौना के रु दिये। बाबूजी और मै गए थे। पहली बार बाबूजी को उनके यहाँ खाना खाने का न्यौता था किन्तु खाना-पूर्ती हेतु ही। यदि बाबूजी ने आने का वचन न दिया होता तो मेरा विचार उनके कथा और खाने का बहिष्कार करने का था। घर लौट कर मैंने उनसे कहा भी जाने की हामी भर कर खुद अपनी और मेरे दोनों की बेइज्जती करा ली। मिश्रा जी उनके मकान मालिक थे और उनके घर वालों को भी नहीं पूंछा था।

जैसे ही सिटी स्टेशन पर उनका क्वार्टर ठीक हुआ वे लोग उसमे रहने को भागे। जल्दबाज़ी मे शरद की पत्नी अपनी एक साड़ी और कपड़े धोने का तसला मिश्रा जी के घर भूल आयीं थीं। मिश्रा जी ने मुझ से उनका सामान उनके घर पहुंचाने को कहा और मुझे वैसा करना पड़ा। वे लोग चाहते थे कि मै मिश्रा जी को सहयोग करना बंद कर दूँ परंतु मै उनकी गलती के कारण मिश्रा जी द्वारा उन्हें बुरा-भला कहे जाने पर क्यों पार्टी का काम छोड़ देता?मैंने उनके सिटी के क्वार्टर पर उनसे संपर्क करना ही बंद कर दिया। जब शालिनी को माँ-भाभी से मिलना होता तो मै दुकान जाते मे साइकिल पर यशवंत के साथ बैठा कर दोनों को वहाँ छोड़ देता और लौटते मे वैसे ही वापिस हो लेता। न तो मुझे उनके यहाँ का भोजन पसंद आता था न ही उन लोगों का व्यवहार। अतः मै चाय के अलावा कुछ नहीं लेता था।

कुक्कू का ट्रांसफर नाभा से मुजफ्फर नगर हो चुका था। होली पर उन्होने अपनी माता को बुलाया था। छुट्टी के दिनों मे भी ड्यूटी करने वाले शरद मोहन अपनी माँ को लेकर मुजफ्फर नगर गए और उनकी पत्नी तथा बच्चों की रखवाली करने हेतु शालिनी को कहा गया और चूंकि क्वार्टर एकांत एरिया मे पड़ता था तो रात मे मुझे भी वहाँ रुकने का आग्रह किया। हालांकि इच्छा न होते हुये भी हमारे अपने माता-पिता द्वारा भी उन्हे सहयोग करने को कहने पर मुझे रात्रि चौकीदारी हेतु रुकना पड़ा। एक कमरे मे शरद की पत्नी और बेटियाँ तथा दूसरे कमरे मे शालिनी और यशवन्त सोये ,मै बारामदे मे था। गुसलखाना आदि थोड़ा नीचे स्थान पर बहौत आगे था। जब संगीता को उधर जाना होता तो शालिनी को जगा कर साथ ले जातीं और जब शालिनी को जाना होता तो वह कुछ दूर तक मुझे साथ ले लेतीं फिर नीचे खुद चली जातीं। एक बार सुबह के करीब शालिनी की आँख नहीं खुली तो संगीता मुझ से बोलीं शालिनी रानी तो जागी नहीं आप साथ चले चलिये। मै जहां तक शालिनी अपने साथ ले गई थीं वहाँ तक जा कर रुक गया तो संगीता नीचे तो उतरीं परंतु आगे उपयुक्त स्थान तक न जाकर वहीं बैठ गईं ,बात अटपटा लगने   की थी। मैंने उसी समय निश्चय किया कि अगले दिन चाहे जो हो मै यहाँ सोने नहीं आऊँगा। सुबह शालिनी के उठते ही मैंने इस हरकत का जिक्र किया तो उन्होने तपाक से कहा कि संगीता भाभी हैं ही आवारा शरद की तो किस्मत फूट गई। उन्होने बताया कि रात मे कई बार उन्हें चादर उढ़ा चुके हैं अब भी देख लो चादर अलग है ,भले ही सब कपड़े पहने थीं परंतु न पहनना ही उसे कहा जाएगा। जब मै अगले दिन नहीं गया तो बउआ ने पूछा यशवन्त और शालिनी भी तो वहाँ हैं क्वार्टर सन्नाटे मे है तुम क्यों नहीं  जा रहे हो?उन्हें क्या घटना बताते?वैसे ही बहाना कर दिया।

20 नवंबर 1988 को अजय की शादी ग्वालियर मे होना तय हुआ। यह भी कमलेश बाबू ने ही तय कराई थी। उनके एक माने हुये मामा जो उनके बी एच ई एल मे पर्चेज मेनेजर थे की बेटी की नन्द से उन्होने अजय की शादी तय करवाई थी।अजय के दोनों सालों से उनकी कुछ न कुछ रिश्तेदारी है। सुबह की 'ताज एक्स्प्रेस' से ग्वालियर गए थे और शाम की 'ताज एक्स्प्रेस'से लौटना था। शादी दिन की थी। दरियाबाद से बाबूजी से बड़े भाई आए थे जिनसे भुआ की मुक़दमेबाज़ी चली थी अतः भुआ-फूफाजी नहीं आए थे। लाखेश भाई साहब बारात विदा हो जाने के बाद कानपुर से सीधे ग्वालियर पहुंचे थे और बैरंग लौट गए थे। कमलेश बाबू को शराब की धुन सवार थी। अजय ने उनके लिए बंदोबस्त कर दिया था। ट्रेन मे अजय के दोस्त अनिल गुप्ता, शरद मोहन से मिल कर कमलेश बाबू ने मेरे मुंह मे एक ढक्कन शराब उंडेल दी थी। चलने से पहले अजय मुझे फटकार चुके थे मै जाना नहीं चाहता था। बउआ ने कहा कि तुम्हारे न जाने से शालिनी भी नहीं जा रही हैं उनका एक ही देवर है और यशवन्त का एक ही चाचा अतः उनका ख्याल करके जाओ। उनकी बात रखने के कारण गया था।

एक रस्म 'चार' की होती है जिसमे लड़की वालों के यहाँ कुछ मेवा वगैरह भेजी जाती है कमलेश बाबू ने उसी 'चार की थैली'मे एक बोतल शराब छिपा कर रख दी थी। इस कारण वहाँ खूब चो-चो हुयी होगी जो अजय ने सुनी होगी अतः रात को खाना निबटने के बाद अजय और कमलेश बाबू मे धुआँ-धार वाक-युद्ध हुआ। हम लोग तो ऊपर सोते थे शालिनी ने मुझ से बीच-बचाव करने को कहा लेकिन मैंने इंकार कर दिया मै पहले ही अजय से फटकार खा चुका था और गलती तो कमलेश बाबू की थी । शालिनी खुद मेरे मना करने पर भी चली गईं तब तक कमलेश बाबू और शोभा अपना सामान पैक करके रात मे ही झांसी लौटने की तैयारी मे थे। उन्होने जल्दी-जल्दी ऊपर आ कर मुझ से रोकने को कहा लेकिन मेरा तर्क था जब बाबूजी-बउआ वहीं हैं तो मै क्यों बीच मे पडू।पता नहीं कैसे फिर वे लोग रुक गए।

22 नवंबर को रिसेप्शन का खाना कुछ खास-खास रिशतेदारों का और मिलने वालों का था। शालिनी ने शरद की पत्नी संगीता से छोले-भटूरे बनवाने की बात कही थी परंतु वह तब आयीं जब काफी लोग खा कर जा चुके थे। सब कार्य खुद शालिनी ने ही किया। यशवन्त का जन्म दिन भी इसी दिन पहली बार मनाया गया। मिल्क केक भी संगीता के घर शालिनी ने जमवाया था वह भी तब पहुंचा जब वे लोग सिटी स्टेशन से हमारे घर पहुंचे।

हमारी दुकान के सेठ जी भी अपनी श्रीमती जी के साथ पधारे थे। उन्होने यशवन्त को जन्मदिन पर और अजय की पत्नी को मुंह दिखायी  के रु 50/-50/-दिये थे।  इसके अगले दिन शोभा और कमलेश बाबू अपने बच्चों को लेकर लौट गए। मेरे भी और अजय की भी शादी उन्होने तय करवाई थी परंतु फिर भी ऐसी ओछी हरकतें करते रहे तब इन बातों का अभीष्ट समझ नहीं आया था जिंनका खुलासा अब हमारे लखनऊ आने के बाद होता गया है इसी कारण वे लोग हमारे लखनऊ आने के विरोधी बने हुये थे क्योंकि उनका तिलस्म टूट गया। गफलत दूर हो गई और उनके चेहरे का नकाब उतर गया। उनकी छोटी बेटी ने अपने घर के  'सोनू'नाम से एक ऐसी आई डी बनाई जिसमे जन्म तिथि अपनी बड़ी बहन की डाल कर ब्लाग जगत के लोगों को गुमराह किया।मुक्ता का खास शगल है मेरे ब्लाग्स पर आई टिप्पणियों के माध्यम से प्रोफाईल खोल कर ब्लागर्स की ओवरहालिंग करना और अपने पिताजी कमलेश बिहारी माथुर को सूचित करना और दोनों मिल कर किसी को ब्लफ़ करके किसी को टोटका-टोने का सहारा लेकर मेरे विरुद्ध करने का प्रयास करते हैं जिसमे अभी तक पूर्ण सफल भी हैं।

 आज कमलेश बाबू और उनकी छोटी बेटी के प्रयास से मेरे ब्लाग्स पर विशेष कर इस ब्लाग पर विजिट कम हो गए हैं। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि आज न सही आने वाली पीढ़ी के लोग तो पढ़ेंगे और सच को समझ ही जाएँगे।
अतीत मे वे इसलिए कामयाबी के साथ हमे क्षति पहुंचाते रहे कि हम उन पर शक नहीं रख रहे थे,अब वे सब शक के दायरे मे हैं और प्रत्येक क्षति हेतु मै उनको प्रथम उत्तरदाई मान रहा हूँ। मेरा लेखन अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं है अतः कुल मिला कर वे पाठकों की ही क्षति कर रहे हैं।यह ताज्जुब नहीं है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं क्योंकि अब शीशे की तरह साफ है कि उनका स्वभाव ही ऐसा रहा है। ताज्जुब की बात यह है कि इन्टरनेट के विद्वान इनके झांसे मे कैसे फंस जाते हैं उनकी अपनी बुद्धि कहाँ खो जाती है। इनमे वे लोग अधिक हैं जिनकी मैंने ब्लाग मे तारीफ लिख दी है और इन लोगों ने चुन कर उन्हीं को फाँसा है। जो लोग एक बार मुझ से अपने पुत्र-पुत्री हेतु ज्योतिषीय जानकारी भी प्राप्त कर चुके अब ब्लाग और फेस बुक पर मेरे विरुद्ध प्रचार मे संलग्न हैं। जो लोग दूसरे  रूप मे लाभ ले चुके वे अपने तरीके से विरोध कर रहे हैं। इससे उनके भी मानसिक स्तर का खुलासा हो गया कि कितने विद्वान और योग्य हैं वे और मै उनकी पोल देख कर सतर्क हो गया। अतः उन्हे भड़काने वाले अपने रिशतेदारों का आभारी ही हूँ।

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मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

आगरा /1988-89 (भाग-1)

हींग की मंडी के जूता वाले सेठ जी जो और व्यापारियों की तरह और कर्मचारियों का वेतन छुट्टी का काट लेते थे परंतु मेरे चंडीगढ़ से लौटने पर 20 दिन की छुट्टी सवेतन रखी। इससे पूर्व भी और बाद भी कभी मेरे वेतन की  कटौती नहीं हुयी चाहे वह छुट्टी लखनऊ कम्यूनिस्ट पार्टी की रैली मे जाने के लिए ही क्यों न की हो। दिसंबर 1987 मे जूनियर डाक्टरों को  एस पी -सिटी  अरविंद जैन ने  (जो अब ए डी जी ,आर पी एफ हैं)मेडीकल कालेज की हड़ताल के सिलसिले मे जेल मे बंद करा दिया था। चूंकी डाक्टरों की यूनियन के प्रेसीडेंट का विनय आहूजा थे जिनके पिता जी का हरीश आहूजा एडवोकेट पार्टी के आड़ीटर थे। आगरा कम्यूनिस्ट पार्टी ने जूनियर डाक्टरों का खुल कर समर्थन किया और एक मशाल जुलूस निकाला। एस पी -सिटी ने ए डी एम सिटी से पहले से ब्लैंक वारंट साइन करा रखे थे उनका स्तेमाल करते हुये जुलूस मे शामिल सभी कम्यूनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था । का डा महेश चंद्र शर्मा जी और मै उस जुलूस मे होते हुये भी गिरफ्तार नहीं हो पाये थे। हम लोग रोजाना पार्टी दफ्तर जाकर कार्य करते रहे। 02 जनवरी 1988 को जेल मे अपने कम्यूनिस्ट साथियों से मै भी मिलने गया था और सेठ जी से दो घंटे की छुट्टी लेकर गया था।

जिला मंत्री का रमेश मिश्रा जी भी मेरे कार्य से संतुष्ट थे और अक्सर दूर जाने पर मुझे अपनी मोपेड़ पर पीछे बैठाल ले जाते थे। टूंडला से शरद मोहन को अप-डाउन करना पड़ता था उनकी मौसेरी बहन मिक्की तथा उनकी माता ने मुझ से कहा कि आगरा मे उन्हें किराये पर मकान दिला दूँ। मैंने इस निजी कार्य हेतु मिश्रा जी का सहयोग मांगा। जितना किराया वे लोग देना चाहते थे उतने मे किराये पर मकान मिलना संभव न था। मिश्रा जी ने कहा इतने कम मे कोई अपना मकान किराये पर नहीं देगा मुझे ही ऊपर से नीचे शिफ्ट होकर देना पड़ेगा। वह कोई किरायेदार नहीं रखते थे परंतु मेरी  रिश्तेदारी के कारण नीचे का हिस्सा मरम्मत करा कर खुद उसमे आ गए और ऊपर जिसमे खुद रह रहे थे शरद मोहन को कुल रु 400/-मे बिजली खर्च सहित दे दिया।

इन लोगों ने जिस दिन आने को तय किया था उससे एक दिन पहले जिसकी सूचना मुझे भी नहीं दी थी उनके घर ट्रक से सामान लेकर पहुँच गए। ऐसा रेलवे मे कार्यरत योगेन्द्र चंद्र  (सीमा के पति)की सलाह पर किया गया,मुझे शाम को पार्टी आफिस मे मिश्रा जी ने बताया कि आपके रिश्तेदार आज ही आ गए हैं। मुझे ताज्जुब भी हुआ कि मेरे मार्फत मेरे पार्टी लीडर के मकान मे आए और मुझे ही पूर्व सूचना देना मुनासिब न समझा। फिर भी शरद मोहन की छोटी बेटी के होने से पूर्व और उसके जन्म के बाद भी शालिनी अपनी माँ को मदद करने को जाती  रहीं। यशवन्त का वहाँ मन नहीं लगता था ,शरद की बड़ी बेटी उसे परेशान करती थी। कभी-कभी सुबह मै उसे ले आता था और रात को खाना खा कर वह शालिनी के पास चला जाता था। उसे नानी की अपेक्षा अपने बाबा-दादी के पास ही मन लगता था। जब यशवन्त दिन मे घर आता था तब मै शाम को पार्टी आफिस न जाकर सीधे घर आ जाता था और उसे शालिनी के पास पहुंचा देता था,एक दिन वह साइकिल के कैरियर पर ही सो गया। उसकी बोलते हुये चलने की आदत थी और कुछ देर से न बोला तो मैंने टोका तब भी जवाब नहीं दिया ,सड़क पार करते ही मैंने साइकिल रोक कर देखा और उसे सोते पाया तो खुद आगे पैदल ही साइकिल लेकर गया। इस दिन के बाद से मैंने उसे कैरियर पर बैठाना छोड़ दिया और डंडे पर बैठाने लगा जिससे सामने निगाह मे रहे।

शरद मोहन की यह बेटी भी सीजेरियन से ही हुयी थी। उस दिन नर्सिंग होम मे सब को एकट्ठा कर लिया ,चूंकि उनके रिश्तेदार डा का था इस लिए भीड़ पर एतराज नहीं हुआ। मुझे दुकान मे भी बेलेन्स शीट का आवश्यक कार्य था और शाम को मजदूर दिवस की रैली मे भी शामिल होना था। मेरी कतई इच्छा नहीं थे कि मै भी नर्सिंग होम पहुंचूँ परंतु शालिनी का आग्रह था कि जब गाजियाबाद से उनके जीजा अनिल भी आ गए और छोटे बहनोयी योगेन्द्र झांसी से आ गए तो शहर मे होते हुये भी मेरा शामिल न  होना अच्छा नहीं रहेगा,अतः शामिल होना ही चाहिए। हालांकि मेरे द्वारा मेरे परिचित के मकान मे आते समय भी मुझे जो दिन बताया था उससे एक दिन पूर्व आते समय और आकर भी उन लोगों ने सूचित नहीं किया तो वह कैसे अच्छा रहा?खैर बे मन से शामिल हुआ और शरद की पत्नी तथा नवागंतुक बेटी के कमरे पर पहुँचते ही मै वहाँ से रवाना हो गया।

चूंकि यशवन्त भी वहाँ पर था अतः मै अक्सर चला जाता था वरना उन लोगों को मदद करने के बाद उनके बेरूखे व्यवहार से वहाँ झाँकने को भी मन न करता था। एक बार तो नीचे मिश्रा जी के घर मीटिंग अटेण्ड कर के ही लौट भी आया और ऊपर चढ़ कर नहीं गया था। शरद के एक मौसेरे भाई जो काशीपुर से आकर वहाँ मेडिकल कालेज मे पढ़ रहे थे रोज आकर शरद की पत्नी की ड्रेसिंग कर जाते थे। एक दिन जब शरद की सलहज आई हुयी थीं तो रात मे फ्लश का नल खुला छोड़ दिया चाहे गलती से या जान-बूझ कर ,सारी रात पानी बहता रहा,पाईप मे गेंद भी फसी थी  और पड़ौस के मकान तक सीलन हो गई ,उन लोगों ने मिश्रा जी से कहा तब देख कर मिश्रा जी को क्रोध आया और मेरी निगाह मे वह वाजिब ही था। हो सकता है गुस्से मे मिश्रा जी ने उन लोगों को गालियां भी दी हों जैसा उन लोगों ने आरोप लगाया था। उन लोगों के बहौत कहने के बाद भी मैंने मिश्रा जी से कोई ऐतराज नहीं जताया क्योंकि वे लोग ही गलत थे ,मिश्रा जी का तो काफी नुकसान हुआ था। उनकी एक सार्वजनिक छवि थी जिसके चलते पड़ौसी के मकान की भी मरम्मत उन्होने ही करवाई। मिश्रा जी ने उन लोगों से मकान छोडने को कहा और मुझ से भी कहा कि उन्हें जल्दी छोडने को कहूँ । इत्तिफ़ाक से शरद को सिटी स्टेशन पर की पर्सोनेल वाले दो क्वार्टर मिलाकर एक रहने को एलाट हो गया और उसकी मेंटीनेंस मे जो समय लगा उस तक रुकने को मैंने मिश्रा जी से अनुमति दिला दी। .......... 

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