शनिवार, 24 दिसंबर 2011

आगरा /1992 -93 ( विशेष राजनीतिक भाग- 5 )

गतांक से आगे---
लगातार नौ वर्षों तक आगरा भाकपा के जिला मंत्री रह चुकने के बाद मिश्रा जी ने अपने हटाये जाने को अपनी करारी हार माना और बदले की कारवाइयों पर अमल करने लगे। उन्हें लगा कि यह उनके विरोधियों की उनके विरुद्ध साजिश है। उन्हें अपना अतीत याद आ रहा था जैसा पुराने कामरेड्स ने बताया था और कभी-कभी मौज मे होने पर वह खुद भी बताते रहते थे। आगरा भाकपा के संस्थापक मंत्री कामरेड महादेव नारायण टंडन के विरुद्ध डॉ जवाहर सिंह धाकरे से मिल कर मिश्रा जी ने खूब गुट-बाजी की थी और उन्हें हटने पर मजबूर किया था । टंडन जी ने भी अपने समर्थक डॉ महेश चंद्र शर्मा के पक्ष मे ही पद छोड़ा था। शर्मा जी को बीच कार्यकाल मे पद छोडने पर डॉ धाकरे और मिश्रा जी ने मजबूर कर दिया था। डॉ धाकरे जिला मंत्री और मिश्रा जी सहायक जिला मंत्री बने थे। डॉ धाकरे के 06 माह हेतु सोवियत रूस पार्टी स्कूल मे जाने की वजह से मिश्रा जी कार्यवाहक जिला मंत्री बने तो जमे ही रहे वापस चार्ज डॉ धाकरे को नहीं दिया तब से ही दोनों मे मन-मुटाव चला आ रहा था। मिश्रा जी को लगा कि यह डॉ धाकरे का खेल है। परंतु डॉ धाकरे तो पिछड़ा वर्ग के ओमप्रकाश जी को भले ही कुबूल कर रहे थे अनुसूचित वर्ग के कारेड नेमी चंद उनकी पसंद के नहीं थे। डॉ धाकरे के भांजा दामाद कामरेड भानु प्रताप सिंह ने मुझ से साफ कहा था कि,माथुर साहब कहने -सुनने मे तो बातें अच्छी लगती हैं -नेमीचन्द से तो मिश्रा जी ही भले थे। हालांकि नेमीचन्द बनेंगे मुझे खुद सम्मेलन के दूसरे दिन ही पता चला था हमारी त्तरफ से तो ओमप्रकाश जी उम्मीदवार थे। परंतु चुने जाने के बाद जैसा दूसरे लोग चाहते थे मै नेमीचन्द जी को हटाये जाने के सख्त खिलाफ था। हालांकि नेमीचन्द जी लिखत-पढ़त कुछ भी नहीं करते थे और यह भार मुझ पर अतिरिक्त था लेकिन मै चट्टान की तरह उनके समर्थन मे डटा रहा। नेमीचन्द जी भी जानते थे कि उनका पद पर कायम रहना केवल मेरे कारण ही संभव हो रहा है। लोगों ने उनके दिमाग मे खलल डालने के लिए उन्हें नेमीचन्द माथुर कहना शुरू कर दिया। परंतु वह विचलित नहीं हुये।



मिश्रा जी के समक्ष स्पष्ट था कि जब तक मै नेमीचन्द जी के साथ हूँ तब तक उनकी दाल नहीं गल पाएगी। मुझे झुका-दबा या खरीद लेने की फितरत उनके पास नहीं थी। इसलिए उन्होने षड्यंत्र का सहारा लिया। एक बार अचानक कार्यकारिणी बैठक मे मिश्रा जी ने मुझे पार्टी से निकालने का प्रस्ताव रख दिया। शायद वह पहले से लामबंदी कर चुके थे। नेमीचन्द जी भी कुछ न बोले। उस समय बाहर बारिश हो रही थी मैंने अपना छाता उठाया और बैठक से उठ कर घर चल दिया। कामरेड जितेंद्र रघुवंशी ने कहा कि बारिश बंद होने के बाद चले जाना तेज बारिश मे छाता भी बेकार है। मैंने कहा जब आप लोगों ने पार्टी से अकारण मुझे निकाल ही दिया तो चिंता क्यों?यह अवैधानिक फैसला है और मै इसे चुनौती दूंगा।




मैंने जिला मंत्री कामरेड नेमीचन्द से  बाद मे मिल कर कहा कि उनके समर्थन न देने के बावजूद मै कार्यकारिणी के इस अवैध्य फैसले को संवैधानिक चुनौती दे रहा हूँ और इस आशय का लिखित पत्र उनको सौंप दिया। उन्होने मुझे आश्वासन दिया कि वह जिला काउंसिल मे इस विषय पर मेरे साथ रहेंगे। कार्यकारिणी चूंकि मिश्रा जी द्वारा तोड़ ली गई थी वह चुप रहे थे। राज्य-केंद्र पर भी मैंने इस फैसले को चुनौती की सूचना भेज दी थी। मलपुरा शाखा के कामरेड्स जिंनका बहुमत था मेरे साथ थे ,उन्होने तो यहाँ तक कह दिया था कि यदि मिश्रा जी पीछे नहीं हटे तो वे सब भी पार्टी छोड़ देंगे। जिस दिन जिला काउंसिल की बैठक हुई मिश्रा जी ने कामरेड राजवीर सिंह चौहान को बैठक का सभापति घोषित करा दिया जिन्हें वह पहले ही सेट कर चुके थे। उन्होने सभापति बनते ही मुझे बैठक से बाहर कर दिया। अंदर धुआंधार बहस होती रही और मै इतमीनान से छत पर मौजूद रहा। डॉ जवाहर सिंह धाकरे ने आते ही मुझसे सवाल किया कि बैठक से बाहर क्यों हो ?मैंने कहा सभापति चौहान साहब का यही निर्णय है।

डॉ धाकरे से मेरे द्वारा पहले ही पार्टी संविधान पर चर्चा हो चुकी थी। उन्होने बैठक मे पहुँचते ही सभापति जी से संविधान की धाराओं पर चर्चा की और उन्हें बताया कि उनका फैसला एक और असंवैधानिक कारवाई है। कार्यकारिणी समिति का गठन जिला काउंसिल ने किया था और जिला काउंसिल का गठन सम्मेलन ने अतः कार्यकारिणी समिति जिला काउंसिल के सदस्य को हटा ही नहीं सकती थी। सभापति अगर अपना फैसला नहीं बदलेंगे तो उनके विरुद्ध भी संविधान-विरोधी कारवाई करने का प्रस्ताव पारित किया जाएगा। चौहान साहब की ठाकुर ब्रादरी के धाकरे साहब ने जब उन्हें चुनौती दी तो उन्होने अपना फैसला पलटते हुये दो-तीन वरिष्ठ कामरेड्स भेज कर मुझे बैठक के भीतर बुलवाया। उन्होने यह भी सूचित किया कि जिला काउंसिल ने कार्यकारिणी का फैसला रद्द कर दिया है अतः मै न केवल पार्टी मे बल्कि अपने सभी पदों पर पूर्ववत कार्य करता रहूँ। संवैधानिक जीत तो हासिल हो गई ,किन्तु एक बारगी इज्जत पर  तो नाहक  हमला हुआ ही इसलिए मन ही मन मौका मिलते ही पार्टी से खुद ही अलग हो जाने का निश्चय कर लिया और किसी से इस संबंध मे कुछ न कहा तथा कार्य पहले की भांति ही करता रहा।

एक बार जिला कचहरी पर कोई धरना  प्रदर्शन था मै वहाँ भी (उस घटना के बाद मैंने मिश्रा जी से बोलना बंद कर दिया था) मिश्रा जी से न बोला। मिश्रा जी मेरे पास आए और बोले माथुर साहब यह सब तो चलता ही रहता है,हम लोग एक ही पार्टी मे हैं ,उद्देश्य एक ही हैं ,काम एक साथ कर रहे हैं तो बोल-चाल बंद करने का क्या लाभ। मजबूरन उनका अभिवादन करना ही पड़ा वह वरिष्ठ थे और खुद मेरे पास चल कर आए थे । हम लोग उनके हित मे थे वह हमें गलत समझ रहे थे। कटारा ने तांत्रिक प्रक्रिया से उनके सोचने की शक्ति कुंन्द कर दी थी।

मिश्रा जी ने शायद यह भी मान लिया था कि वह मुझे हरा न पाएंगे। इसलिए उन्होने और गंभीर चाल चली जो अपने समय पर ही लिखित स्थान प्राप्त करेगी।


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3 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह के संस्मरण पढ़ने से राजनीति की उठा-पटक को समझने में मदद मिलती है।

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  2. यही राजनीत है,जीवन का अनुभव आगे बढ़ने के लिए अग्रसर करता है..मै भी पिछले ३५ वर्षों से राजनीत से जुडा हू,..अनुभव से भरा सुंदर आलेख,....

    मेरी नई रचना...काव्यान्जलि ...बेटी और पेड़... में click करे

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  3. माथुर जी,..मै कांग्रेस से जुड़ा हूँ और मै अन्ना जी का समर्थक भी नही हूँ,भ्रस्टाचार को लेकर मन में आए भावों को रचना के माध्यम से मैंने लिख दिया,मै सौ प्रतिशत आपके बातों से सहमत हूँ,...आपकी एवं अन्य २४ टिप्पणियाँ स्पैम में पता नही कैसे चली गई थी,..उसे प्रकाशित कर रहा हूँ,आप मेरे ब्लॉग में आकार के अपने विचार दिए,
    उसके लिए आभारी हूँ भविष्य में इसी तरह स्नेह बनाए रखे,....

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