गुरुवार, 15 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-9

हालांकि शालिनी के साथ तो राजा-की -मंडी क्वार्टर पर जाते ही थे परंतु अकेले न जाने से उनकी माता और भाभी का सवाल था कि क्या कुछ बुरा लगा जो रोज पास मे आकर भी घर नहीं आते। मै चाहता था कि सच्चाई सामने ला  दी जाये परंतु शालिनी का आग्रह था कि बात को मन मे ही रखू वरना संगीता को मुसीबत का सामना करना पड़ेगा सो चुप ही रहा । बस कभी-कभी लौटते मे चला जाता था। एक बार किसी कारण से मार्केट जल्दी बंद हो गया और भाकपा कार्यालय मे उस वक्त से जिला मंत्री के आने मे काफी देर थी। लिहाजा रेलवे क्वार्टर चला गया। शरद के बनवारी लाल ताउजी वहाँ आए हुये थे और बीमार थे,शरद और उनकी माँ अमरोहा गए हुये थे। संगीता ने अपने तइया सुसर हेतु फल लाने को रुपए दिये ,मैंने ला दिये। मेरे जाने से उन्हें राहत हुई क्योंकि ठेले वाला वे फल लाता नहीं था और उनकी बेटियाँ छोटी थीं जिन्हे बीमार के ऊपर छोड़ कर वह खुद जा नही सकती थी। संगीता के यह कहने पर कि जब तक मम्मी जी वापिस नहीं आ जाती हैं दो-तीन दिन आप लगातार रोज आ जाएँ ताउजी भी है और बीमार हैं आप को कोई शिकायत नहीं मिलेगी ,यह भी आभास हुआ कि वह मेरे वहाँ न जाने के कारण को अपनी हरकत समझती थी। बहरहाल लगातार रोज एक ट्रिप लगा लिया। वे लोग अमरोहा मे किसी बीमार को ही देखने गए थे ज्यादा रुक गए।

मै ड्यूटी जाते हुये उधर गया था और बनवारी लाल ठीक हो चुके थे ,स्टेशन पर घूमने गए हुये थे। मै वापिस लौटने ही वाला था कि वह तमाम  रिश्तेदार लोगों को जिनकी गाड़ी लेट थी और प्लेटफार्म पर इ न्त्जार कर रहे थे चाय पिलाने की बात कह कर घर ले आए। संगीता जो साफ-सफाई अभियान चला रही थीं एकदम हड्बड़ा गई। जल्दी-जल्दी बिना नहाये ही कपड़े बदले और बड़ी बेटी से मुझे अंदर बुलवा कर सौ का नोट देकर बोलीं आज घर पर कुछ नहीं है ,कुछ मिठाई और नमकीन ला दे,आप न आए होते या जा चुके होते तो बड़ी मुसीबत होती ,खुद ही जाना पड़ता,मेहमानों को घर पर छोड़ कर जाना भी गलत होता। इस बात का जिक्र संगीता ने खुद भी शालिनी के सामने बाद मे किया था। तब मैंने कहा था कि फिर आप ऐसा क्यों करती हैं जो मुझे  बार-बार न आने का फैसला करना पड़ता है। उनका जवाब था योगेन्द्र बाबू ने (सीमा के पति ) कभी कोई एतराज नहीं किया बल्कि वह तो ऐसे मे और खुश हो जाते हैं उसी रौ मे आपके सामने भी वैसा हो जाता है ।(अक्तूबर मे रामपुर मे शरद की मौसी के यहाँ शादी थी ,निमंत्रण हमारे पास भी आया था। शरद और उनकी माँ शादी मे गए थे और बनवारी लाल वही थे। फिर भी शालिनी से चक्कर लगाने को कहा गया था। एक रोज शालिनी को सुबह छोड़ कर शाम को वापिस ले आए थे। बनवारी लाल बाहर के कमरे मे रहते थे उन्हे शायद आपत्ति थी या और कोई कारण रहा होगा कि संगीता ने कहा आँगन वाले रास्ते से आ जाया करे। रोज शालिनी का जाना संभव न था अतः पार्टी कार्यालय से लौटते मे थोड़ी देर को हो आता था। )


लेकिन एक दिन लौटते मे जब संगीता दरवाजे तक छोडने आ रही थी तो बोली कि आपने उस दिन शालिनी रानी के सामने क्यो कहा कि "आप ऐसा क्यो करती है",क्या आपको आनंद नही आता ? मेरे इस जवाब पर कि मै आनंद के वास्ते नही आप लोगो के कहने पर आ जाता हू वह भी अनिछापूर्वक। निश्चय ही इस जवाब की न उम्मीद संगीता को थी न ही अच्छा लगा जो चेहरे से साफ था। तब बोली कि मुझे तो आनंद आता है आप मुझे मदद नही कर सकते।मैंने भी स्पष्ट कर दिया इस प्रकार की मदद मै नही कर सकता केवल योगेन्द्र ही कर सकते हैं।किन्तु दरवाजे तक आते-आते संगीता ने किस प्रकार तिकड़म से हुक ढीले कर लिए थे कि,बजाए दरवाजा खोलने के बदन खोल डाला और कहा आपकी मर्जी दरवाजा खोल कर चले जाएँ या सहला दें तो मै खुद बाद मे खोल दूँगी। उस स्थिति मे दरवाजा खोलने के बजाए ख़्वाहिश पूरा करना मजबूरी थी। परंतु अगले दिन से फिर वहाँ नही गया।

इस बार दीपावली की दोज़ पर जब नवंबर मे  शालिनी शरद मोहन को टीका करने पहुंची तो बेहद आश्चर्य मे पड़ गई जो उन्हे शरद,संगीता उनकी दोनों बेटियाँ नहीं मिले वे लोग मुज्जफर नगर गए हुये थे। घर पर उनकी माँ,ताउजी,ममेरे भाई आर ए एन माथुर,उनकी पत्नी तथा बेटी लवलीन ही मिले। पहली बार शालिनी को उनके बनवारी ताऊ जी ने स्टील का एक बड़ा टिफ़िन केरियर टीका कराई के रूप मे दिया। ईस्टर्न ट्रेडर्स से मुझे भी इस बार स्टील का एक छोटा टिफ़िन केरियार दीपावली गिफ्ट के रूप मे मिला था। मेक्सवेल और रेकसन दुकानों से जूते की जोड़ियाँ भी इस दीपावली पर मिली थीं। लोहा और चमड़ा शनि के पदार्थ इस दीपावली के गिफ्ट थे और किसी भी त्यौहार पर शालिनी का सामना अपनी माँ से पहली बार बगैर किसी सगी भाभी की उपस्थिती के था। वहाँ से भोजन करके आने के बाद उसी रात से शालिनी को जो बुखार चढ़ा वह मृत्यु पर्यंत ठीक न हुआ।

शालिनी की  ममेरी भतीजी लवलीन को हाथ देखने का शौक था उसने मुझसे 'हस्त रेखा' की पुस्तकें पढ़ने को मांगी थीं ,मैंने देने का वादा कर दिया था परंतु शालिनी की माँ ने उनसे कहा था कि विजय बाबू को मना कर दो कि लवलीन को अपनी किताबे न दें। ताज्जुब की बात थी कि जिस लड़की के पिता को पाँच वर्ष की उम्र से बतौर भुआ पाला हो उसी की पुत्री को ज्ञान से वंचित करना चाहती थीं उसकी फुफेरी दादी। शालिनी ने मेरे सामने ही लवलीन को हाथ दिखाया था जिसने उनसे कहा था -"भुआ आपकी उम्र 35 वर्ष ही है"। शालिनी ने जवाब मे कहा था तो अब कुछ महीने ही मरने मे बाकी हैं। मैंने समझाया था कि अपनी भतीजी की बात पर ध्यान न देना और निश्चिंत रहना। अगले दिन दो किताबे हस्त रेखा की मै लवलीन को दे आया था और शालिनी की माँ को बता दिया था कि वहाँ से जाते ही उन्हे तेज बुखार हो गया है।

इन किताबों से लवलीन को ज्ञान-वृद्धि मे जो लाभ हुआ  उसका वर्णन उन्हे लौटाने के बाद इस पत्र मे किया था-


  निश्चय ही शरद की माँ अपने ही भतीजे की पुत्री को ज्ञान से वंचित रखना चाहती थी और चूंकि मै उनसे असंतुष्ट था इसलिए भी और दूसरों का अधिकाधिक कल्याण करने की बेवकूफी से ग्रसित हूँ इसलिए भी अपने पास की दोनों ही पुस्तके उस होनहार लड़की को पढ़ने को सौंप दी थी। 

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