मंगलवार, 13 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-8

आना-जाना ,नौ घंटे जाब करना और फिर पार्टी आफिस मे जिला मंत्री जी को सहयोग करना इन सब मे काफी समय लगता था एवं शालिनी को भी साइकिल पर जाना-आना पड़ता था,अतः उनके अपने आठ हजार रुपए से एक मोपेड़ लेने का ज़ोर था। ये रुपए उनके बचपन मे उनके सबसे बड़े निसंतान ताउजी द्वारा पोस्ट आफिस मे जमा कराये एक हजार रुपए से बढ़ कर इतने हुये थे। रक्षा बंधन 02 अगस्त को मोपेड़ लेना तय हुआ। इत्तिफ़ाक से इसी दिन डॉ शोभा फरीदाबाद मे अजय को राखी बांध कर वहाँ से आगरा पहुंची। वह पी एच डी के बाद B Ed की परीक्षा देने फरीदाबाद गई थीं। अजय रोजाना परीक्षा केंद्र पर पहुंचाने -बुलाने अपने स्कूटर से जाते थे। उस सुबह 07 बजे ट्रेन पर बैठा गए थे जो राजा-की-मंडी पर 12 बजे पहुंची। मै,शालिनी और यशवन्त उन्हे स्टेशन पर रिसीव करने पहुंचे थे। कमलानगर से साइकिल पर गए थे ,क्वार्टर पर उन्होने शरद मोहन को राखी बांध दी थी लेकिन उनके घर उस रोज रुके नहीं। रेल से उतरते मे डॉ शोभा के हाथ मे टिकट था परंतु पता नहीं कैसे उसे प्लेटफार्म पर गिरा दिया और उसी पर पैर भी रख दिया और उसे खोजने लगीं। सारा पर्स ,अटेची सब चेक कर लिया टिकट पर नजर न पड़ी। शालिनी के यह कहने पर कि वह शरद का नाम लेकर बाहर निकलवा देंगी डॉ शोभा तमक गई कि वह पेनल्टी भी पे कर देंगी लेकिन एहसान न लेंगी। काफी कहने पर भी जगह से टस से मस न हो रही थीं। मैंने कहा कि उस जगह से हटो तो देखें कहीं वहीं न हो तब बड़ी मुश्किल से पैर हटाया जिसके नीचे टिकट दबा पड़ा था। तब कहीं जाकर हम लोग स्टेशन से बाहर निकले और घर पहुंचे। बउआ-बाबूजी इंतजार कर रहे थे।

अजय के सहपाठी के एक भाई जिसे होटल मुगल मे मैंने जाब दिलाया था जो अब लेम्को मे आडीटर था और कृष्णा आटोमोबाइल्स मे पार्ट टाइम भी करता था शाम को अपने स्कूटर से मुझे एजेंसी पर ले गया और मैंने एक हीरो मेजेस्टिक लगभग रु 9500/- मे खरीद ली । उसी पर बैठ कर घर पहुंचा तो डॉ शोभा का चेहरा फक पीला पड़ गया। हालांकि कमलेश बाबू के पास भी पहले से ही स्कूटर था और अजय के पास भी मैंने तो मोपेड़ ही ली थी और कभी भी छोटे बहन- भाई के पास होने पर मुझे बुरा नहीं लगा परंतु डॉ शोभा ने बउआ के कहने पर लाई गई बर्फी को छूआ  तक नहीं ,यह कह कर टाल दिया कि कल लेंगे। अगले दिन जब कहा अपनी मिठाई तो खा लो तो घुर्रा पड़ीं कि हम चलते वक्त मीठा नहीं खा सकते। यह मेरे द्वारा  गंभीर गलती रही कि मैने डॉ शोभा को छोटी बहन के नाते कभी गलत माना ही नहीं और ये लोग हमे सपरिवार छति पहुंचाते ही रहे।

अब मोपेड़ आ जाने के बाद शालिनी यशवन्त के स्कूल जाने के बाद बउआ-बाबूजी का खाना रख कर राजा-की -मंडी क्वार्टर पर यदा-कदा मिलने चली जाती थीं और घंटे-डेढ़ घंटे बैठ कर वापिस आ जाती थी उसके बाद मै हींग-कि-मंडी जाब करने चला जाता था। कभी-कभी यशवन्त की छुट्टी होने पर सुबह वहाँ उसके साथ रुक जाती थी और मै जाब के बाद पार्टी कार्यालय होते हुये रात को उन लोगों को अपने साथ लेता आता था। एक आध बार ऐसा भी हुआ कि जब स्कूल दिवस मे थोड़ी देर को मिलने गई तो उसी बीच उनकी छोटी भतीजी जिसे रोजाना रिक्शा से या पैदल लेने संगीता जाती थीं को मोपेड़ पर ले जाने को शालिनी ने कहा। जाते समय तो वन सीटर पर दिक्कत नहीं थी परंतु लौटते समय बस्ते के साथ उनकी भतीजी के बैठने से जगह तंग हो जाती थी और संगीता कस कर बैठती थीं जिससे चलाने मे मुझे दिक्कत होती थी। हालांकि यशवन्त और शालिनी के बैठने पर दिक्कत नहीं होती थी वे लोग ठीक से बैठते थे। एक बार जब शालिनी की माता उनके भाई के साथ मुज्जफर नगर गई हुई थीं सुबह हाल पता करते हुये जाने को शालिनी ने कहा था और मै ड्यूटी के लिए चलने लगा तो संगीता बोली कि अभी तो बाजार खुलने मे समय है आप आधा घंटा और रुक जाएँ तो नहा कर स्कूल तक आपके साथ चले चलती हूँ। वक्त तो वाकई था परंतु मै रुकना नहीं चाह रहा था फिर भी रुक गया। संगीता बाल्टी मे पानी लेकर कमरे के सामने बारामदे मे नहाने लगी जबकि आँगन के बाद सामने ही गुसलखाना था।तसल्ली से नहाना,बदन पोंछना,कपड़े बदलना और फिर बाल काढ़ने के बाद संगीता मोपेड़ से स्कूल गई। उनकी बेटी गेट पर ही अंदर खड़ी थी। संगीता के कहे मुताबिक मुझे छोड़ कर ड्यूटी चले जाना था किन्तु वह बच्ची बोली कि,फूफाजी घर तक छोड़ दीजिये। लिहाजा फिर उन दोनों को बैठा कर क्वार्टर पर छोडना ही पड़ा।

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