शुक्रवार, 30 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 / (भाग-5 )

हमारी बउआ को बाँके बिहारी मंदिर,वृन्दावन पर अत्यधिक आस्था व विश्वास था। हालांकि 1962 मे उन्होने बाबूजी को अपने पास से (नानाजी -मामाजी से मिले पैसे) देकर वृन्दावन जाने को कहा था और एक हफ्ते मे वहाँ से लौटते मे घर के करीब पहुँचते -पहुँचते बाबू जी के दफ्तर के किसी साथी ने रिक्शा रुकवा कर  सूचना दी कि बाबूजी का ट्रांसफर सिलीगुड़ी हो गया है। आफिस पहुँचते ही उन्हें रिलीव कर दिया जाएगा। पाँच वर्ष वहाँ रहने के दौरान ही ईस्टर्न कमांड अलग बन गया और वापिस सेंट्रल कमांड मे ट्रांसफर मुश्किल था। कानपुर से निर्वाचित भाकपा समर्थित निर्दलीय सांसद कामरेड एस एम बेनर्जी के अथक प्रयासों से मूल रूप से सेंट्रल कमांड से गए लोग वापिस आ सके थे तब बाबूजी मेरठ आए थे।

1984 अप्रैल मे जब यशवन्त लगभग साढ़े चार माह का था बउआ की इच्छा पर हम लोग वृन्दावन -बाँके बिहारी मंदिर गए थे। वहाँ बाबूजी ने रु 10/- देकर यशवन्त को गोसाईञ्जी के माध्यम से मुख्य मूर्ती के द्वार पर मत्था टेकने भेज दिया था। लौट के आने के दो दिन के अंदर मुझे फर्जी इल्जाम लगा कर होटल मुगल से सस्पेंड कर दिया गया था -यूनियन प्रेसीडेंट को मेनेजमेंट ने पहले ही अपनी ओर मिला लिया होगा।

अतः जब बीमारी चलते के बीच ही शालिनी ने वृन्दावन-बाँके बिहारी मंदिर जाने की इच्छा व्यक्त की तो मै जाने का इच्छुक नहीं था। परंतु शालिनी ने बउआ से समर्थन करा दिया तो अनिच्छापूर्वक इतवार को जाने का फैसला करना पड़ा। इस खातिर शनिवार 11 जून को हेयर कटिंग भी कराना पड़ा। 12 जून इतवार को सुबह 08 बजे वाली पेसेंजर ट्रेन से मथुरा जाकर वहाँ से टेम्पो के माध्यम से वृन्दावन गए। अक्सर बस से लौट लेते थे किन्तु शालिनी ने इसलिए ट्रेन से लौटने पर ज़ोर दिया कि कुछ देर राजा-की-मंडी क्वार्टर पर अपनी माँ से मिल लेंगी और वह सुबह ही शरद मोहन को कह चुकी थीं। कोई एक्स्प्रेस ट्रेन पकड़ कर चले तो किन्तु जेनरल कोच मे जगह न थी। मै और यशवन्त तो खड़े-खड़े ही आए किन्तु शालिनी खड़े न रह पाने के कारण फर्श पर बैठ कर आईं ,किसी ने सीट पर थोड़ी भी जगह बैठने को न दी।

तीन बजे के करीब राजा -की -मंडी क्वार्टर पर पहुंचे। संगीता ने दाल-चावल बना कर रखे थे। मैंने और यशवन्त ने वह खाना नहीं खाया और केवल चाय ही पी। किन्तु शालिनी ने अपनी माँ के कहने पर वह रखा हुआ ठंडा  दाल-चावल खा लिया। वहाँ से चलते-चलते ही उन्हें बुखार चढ़ गया था। 13 और 14 तारीख को मै ड्यूटी नहीं गया किन्तु 15 तारीख को शालिनी ने कहा कि कब तक छुट्टी हो पाएगी अतः मै ड्यूटी चला जाऊ । 16 तारीख,गुरुवार  को फिर मै ड्यूटी नहीं गया। दोपहर मे यशवन्त ने ब्रेड खाने से मना कर दिया तो शालिनी ने कहा वह परांठा नहीं बनाएँगी मुझे बना कर देने को कहा। मैंने यशवन्त को पराँठे खिला दिये तो वह संतुष्ट थीं और उसके खाने के बीच ही सो गई। सोते ही सोते उनका प्राणान्त हो गया था एक परिचित डॉ को बुलवाया तो वह बोले अब दम है ही नहीं अस्पताल ले जाना बेकार है।

अगल-बगल के लोगों की भी यही राय थी। उन लोगों ने राजा-की -मंडी सूचना देने को कहा। यशवन्त भी मेरे साथ मोपेड़ पर गया और घर पर बाबूजी व बउआ अकेले ही रह गए। उनके यहाँ सूचना देने के बाद अजय और डॉ शोभा को टेलीग्राम किए। शरद मोहन उस दिन गाजियाबाद जाने हेतु दिल्ली की ट्रेन से जा रहे थे,उनके ताउजी-बनवारी लाल साहब ने स्टेशन मास्टर से कह कर अगले स्टेशन जहां गाड़ी का स्टापेज था उन्हें वापिस आगरा लौटने का एनाउंसमेंट करवा दिया था। दिल्ली से आती ट्रेन को वहाँ के स्टेशन मास्टर ने रुकवा रखा था और उनसे मिल कर वह वापिस लौट लिए। जब वह घर पहुंचे तब उनकी माँ और पत्नी उनके साथ काफी रात मे हमारे घर आए और थोड़ी देर रुक कर सुबह आने को कह कर चले गए।


17 तारीख ,शुक्रवार की सुबह अर्जुन नगर रानी मौसी के यहाँ कहने गए तो भी यशवन्त मेरे साथ ही गया। उन्होने अपने भांजे नवीन जो यूनीवर्सिटी मे जाब करता था से भी बताने को कहा बाद मे वह उसी के साथ स्कूटर से आई थीं।कमला नगर मे ही रहने वाले आर सी माथुर एवं आर पी माथुर साहब के घर भी सूचना देने यशवन्त मेरे साथ-साथ गया था। 17 तारीख को सुबह वह उनकी माँ,पत्नी,ताउजी और उनके स्टाफ के आठ-दस लोग भी आ गए थे। कालोनी के कुछ लोग ,डॉ रामनाथ भी घाट तक गए थे। यशवन्त तो हर पल मेरे ही साथ था वह भी घाट जाना चाह रहा था तो बाबूजी ने चलने को कह दिया और उसे भी ले चले। बउआ नहीं चाह रही थीं कि साढ़े दस वर्ष का बच्चा घाट जाकर सब देखे। घाट तक तो यशवन्त शांत शांत रहा परंतु फिर वहाँ फूट-फूट कर जो रोया सो कई दिनों तक रोता ही रहा।घर लौट कर शरद मोहन ने यशवन्त से कहा था कि हम कल फिर आएंगे और आते रहेंगे जबकि आए फिर 06 वर्ष बाद सन2000मे।  बउआ का दृष्टिकोण था कि रोने से सदमा नहीं लगेगा अतः रोना ठीक है। बहर हाल किसी प्रकार उसे उसे समझा कर सम्हाल लिया।

17 जून की शाम को मुज्जफर नगर से आए कृष्ण मोहन उर्फ 'कूकू'उनकी पत्नी मधू अर्थात कमलेश बाबू की भतीजी और झांसी से आए सीमा और उनके पति योगेन्द्र हमारे घर आए। सब के बच्चे राजा-की-मंडी क्वार्टर पर थे। उन लोगों के सामने ही फरीदाबाद से अजय उनकी पत्नी और पुत्री अनुमिता भी पहुँच गए। सीमा लौटते समय यशवन्त को मौसी होने के नाते समझा रही थीं कि अब से पापा को ही मम्मी भी समझना और उनका व अपना ख्याल रखना । कुक्कू और मधू तो योगेन्द्र के साथ गेट से बाहर निकल चुके थे। योगेन्द्र बड़ी ज़ोर से  चिल्ला कर बोले सीमा जल्दी चलो देर हो रही है अतः हड्बड़ा कर सीमा को भागना पड़ा।

झांसी मे शायद कमलेश बाबू को टेलीग्राम नहीं मिला होगा। उनके पिताजी सरदार बिहारी माथुर साहब बाबूजी का पत्र मिलने के बाद जब आए तो उन्होने पूंछा कि विपिन नहीं आए क्या?विपिन उनका घर का नाम है। बाबूजी ने कहा छुट्टी नहीं मिली होगी इसलिए नहीं आ पाये होंगे। अलीगढ़ लौट कर उन्होने किसी प्रकार टेलीफोन पर उन्हें आगरा जाने को कहा। डॉ शोभा और उनके पति तब आए और दो दिन रुक कर लौट गए। डॉ शोभा ने शायद बउआ से यशवन्त को हस्तगत करने की बात की होगी। बउआ व बाबूजी ने मुझे कुछ नहीं बताया परंतु अजय को उनका दृष्टिकोण बताया होगा। अजय की श्रीमतीजी ने बउआ को मना किया कि वह डॉ शोभा के सुपुर्द बच्चे को न करें। मुझे इन सब बातों का पता बउआ ने जब दिया तब उसके हफ्ते भर के अंदर बाबूजी और उसके बारह दिन बाद बउआ भी न रहीं।

क्रमशः ..... 

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